उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)
वाणी-संयम

वाणी का प्रयोग
सत्य वचन, हितकर वचन, प्रिय वचनµयह वाणी का सम्यक् प्रयोग है। हम मौन के द्वारा वाणी का सम्यक् प्रयोग करना सीखें। जो जड़ पदार्थ हैं, वे क्या कभी बोलते हैं? क्या यह उनकी साधना है? साधना यह हैµवाणी का जो विकास हुआ है उसका हम सम्यक् प्रयोग करें, संयममय उपयोग करें। मैं यह नहीं सोचताµवाणी की जो शक्ति मनुष्य को मिली है, वह उसका उपयोग न करे। मनुष्य को बोलने की दुर्लभ शक्ति मिली है। वह न वनस्पति जगत् को प्राप्त है और न पशु-पक्षी जगत् को प्राप्त है। किसी भी पशु-पक्षी को लें, उनकी भाषा के शब्द बहुत सीमित हैं। वैज्ञानिकों ने परीक्षण के बाद यह पायाµबंदरों की भाषा में छह या सात शब्द हैं। किसी पक्षी की भाषा में तीन शब्द हैं, किसी की भाषा में पाँच शब्द हैं। इसका अर्थ हैµपशु-पक्षियों का कोई शब्दकोश बनता ही नहीं है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसने समर्थ शब्दकोश का निर्माण किया है। उसके शब्दकोश में हजारों नहीं, लाखों-लाखों शब्दों का विकास हुआ है। इतनी समृद्ध भाषा है। क्या हम मौन रहकर भाषा के विकास को रोक दें? यह कभी वांछनीय नहीं है। बोलना जरूरी है किंतु सम्यक् बोलना, संयमपूर्वक बोलना उससे ज्यादा जरूरी है। यदि वाक् संयम हो तो अनेक समस्याएँ समाहित हो जाए।
वाणी का विवेक
अधिकांश समस्याओं का हेतु है वाणी का संयम। आदमी जितना बोलकर बिगाड़ता है, उतना करके नहीं बिगाड़ता। संयत भाषा का प्रयोग कभी समस्या नहीं बनता। कषाय की छलनी से छनकर जो भाषा आती है, वह भाषा न बोलें। कषायमुक्त भाषा बोलें। इस एक सूत्र में वाणी का विवेक समाविष्ट हो जाता है। भगवान् महावीर ने वाणी के विवेक के लिए स्वतंत्र अध्यायों की रचना की। कैसे बोलना चाहिए? कब बोलना चाहिए? इन सबको विवेक दिया।
शिष्ट समाज की पहचान का बहुत बड़ा साधन हैµवाणी का विवेक। शिष्ट व्यक्ति और शिष्ट समाज की भाषा अलग प्रकार की होगी, उसमें गालियों की बौछार नहीं होगी। कुछ व्यक्ति जब आक्रोश में होते हैं, गालियों की झड़ी लगा देते हैं। गाली का एक छोटा-सा शब्दकोश बन जाता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो लड़ते हैं तो भी शिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हैं। मीठी और ऊँची भाषा का प्रयोग व्यक्तित्व की विशिष्टता का परिचायक है। प्रसिद्ध कहावत बन गईµ‘बोल्या क लाध्या।’ व्यक्ति कैसा है, इसके लिए बहुत गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। उससे पाँच मिनट वार्तालाप करो, पता चल जाएगा कि आदमी कैसा है? यह एक महत्त्वपूर्ण कोण है, जिससे वाणी संयम का मूल्य समझा जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मौन व्यर्थ है। मौन की सार्थकता है, पर उसका मूल्य सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। वह मौन सार्थक है, जिसमें व्यक्ति स्वस्थ और शांत रहे।
बहू का ध्यान रसोई में था। कुत्ता आया और रोटियाँ लेकर भाग गया। सास मौन में बैठी थी। उसने कुत्ते को रोटी ले जाते देखा था। उससे रहा नहीं गया। सास ने हाथ में लाठी लेकर पीटना शुरू कर दिया। बहू ने पीछे देखाµसास ने इशारा करते हुए कहाµदेखो! कुत्ता रोटियाँ लेकर भाग रहा है।
मौन का विकल्प
हम भाषा से समझाएँ या अभाषा से समझाएँ। श्रुत ज्ञान के दोनों प्रकार हैंµअक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत। व्यक्ति इशारे से वह काम कर सकता है, जो कभी-कभी बोलने से भी नहीं होता। मौन वह है, जिसमें न संकेत है, न इशारा है और न हुंकार है। ऐसा मौन यदि एक घंटे भी किया जाता है तो वह बहुत मूल्यवान् है। यदि ऐसा मौन नहीं होता है तो वह मात्र एक ढर्रा, रूढ़ि या परंपरा मात्र है। उस मौन में हमने भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण नहीं किया, उन्हें विश्राम दे दिया। उन पर यह कृपा की पर अपने पर अनुकंपा नहीं की। हम भाषा वर्गणा के पुद्गलों पर भी पूरी अनुकंपा नहीं कर पाते। जो कुछ मौन में चल रहा है उसमें भाषा का भी योग होता है। मौन का हृदय है, स्वरयंत्र का शिथिलीकरण। स्वर यंत्र के शिथिलीकरण की प्रक्रिया को समझकर मौन करें तो मौन का आनंद आएगा। मैं इस बात पर बल देता हूँµएक घंटे का मौन भी हो तो ऐसा हो कि उसका प्रभाव पूरे दिन अनुभव हो। इसका तात्पर्य है शेष तेईस घंटों में न कटु वचन का प्रयोग हो, न अप्रिय वचन का प्रयोग, न अपमान और सताने वाली भाषा का प्रयोग। दिन भर शांत भाव से बोलें, तौल-तौल कर बोलें तो मानना होगा कि एक घंटे का मौन पूरे दिन का मौन हो गया। मौन का सम्यक् विकल्प है वाक् संयम।
परोपकार: दो मार्ग
वाणी के परिष्कार के दो मार्ग हैं। एक है निश्चय नय का ज्ञान और दूसरा है प्रशिक्षण। जिस व्यक्ति में निश्चय नय की धारणा मजबूत होती है वह आग्रहपूर्ण, अन्यायपूर्ण और कटुवचन का प्रयोग नहीं करेगा। जिसे सम्यक् वाणी के प्रयोग का प्रशिक्षण मिल जाए, वह अपनी भाषा का परिष्कार कर सकता है। निश्चय की चेतना जागे, प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुजरे, भाषा के परिष्कार की चाबी स्वयमेव हाथ लग जाएगी।

जप

व्यक्ति बदलना चाहता है। बदलाव का एक सूत्र हैµनादयोग का प्रयोग। एक शब्द की
आवृत्ति करना, उसे बार-बार दोहराना। व्यक्ति जो बनना चाहता है, उसे सामने रखकर उसकी
स्मृति दिलाए, ऐसे शब्द को दोहराना। उस शब्द का नाम बन गया मंत्र। जप का अर्थ हैµमंत्र
की पुनरावृत्ति।
वैदिक परंपरा को देखें, जैन अथवा बौद्ध परंपरा को देखें, लौकिक परंपराओं को देखें, सबने मंत्रों का चुनाव किया है। भारतीय दर्शनों में मंत्र का बहुत विकास हुआ है और वह इसलिए हुआ है कि उससे कुछ उपलब्धियाँ अर्जित कर सकें।
देवाराधना
जप क्यों करें, जप का उद्देश्य क्या है? यह प्रश्न व्यक्ति के मानस में स्फुरित होता है। एक उद्देश्य बतलाया गयाµदेवाराधना। एक ऐसी शक्ति की आराधना करना, जिस शक्ति के द्वारा परिवर्तन हो सके, जो कामना है, वह पूरी हो सके।
जैन साहित्य का प्रसंग है। सम्राट् श्रेणिक ने महामात्य अभयकुमार से कहाµमहारानी को एक दोहद पैदा हुआ है। गर्भावस्था में उत्पन्न होने वाली एक गहरी आकांक्षा को दोहद कहा जाता है। वह दोहद हैµअकाल में वर्षा। यह पूरा कैसा हो सकता है? वर्षा ऋतु नहीं है। असमय में वर्षा कैसे हो सकती है? अभयकुमार सम्राट् को आश्वस्थ कर अपनी पौषधशाला में चला गया। तीन दिन के उपवास का संकल्प लेकर मंत्र-जप में लीन हो गया। मित्र देवता का स्मरण सतत चलता रहा। मंत्र की सतत स्मृति सफल हो गई। देवता प्रस्तुत हो गया। उसने अभयकुमार से पूछाµमुझे क्यों याद किया? अभयकुमार ने कहाµअसमय में वर्षा करनी है। देवता बहुत शक्तिसंपन्न था। असमय में वर्षा कर दी। प्रयोजन सिद्ध हो गया।
कार्यसिद्धि के लिए, विशेष प्रकार की आकांक्षा की पूर्ति के लिए देवता की आराधना की जाती है। देवता की आराधना में जप का प्रयोग मुख्य होता है, साथ में तप का प्रयोग भी चलता है।
विघ्न-निवारण
जप का एक प्रयोजन हैµविघ्न-निवारण। जीवन में बहुत सारी विघ्न-बाधाएँ आती रहती हैं। मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार उनका निराकरण करता है। कुछ ऐसी बाधाएँ भी आती हैं, जहाँ मानवीय शक्ति काम नहीं करती। वहाँ वह मंत्रशक्ति का प्रयोग करता है। ध्वनि प्रकंपनों में बहुत शक्ति होती है। विज्ञान से परिचित लोग इस सच्चाई को जानते हैं। पहले हीरा हीरे को काटता था लेकिन आज उसे काटने के लिए लेशर किरण का प्रयोग होता है, पराध्वनि का प्रयोग होता है। ध्वनि से वे कार्य होते हैं, जो असंभव माने जाते रहे हैं। ध्वनि तरंग के साथ भावना जुड़ जाती है तो वह अधिक शक्तिशाली बन जाती है। जहाँ भी विघ्न आता है, विघ्न-निवारण के लिए मंत्रों का निर्धारण हुआ। राहु की दशा है तो अमुक मंत्र का जप करें। शनि की साढ़े साती चल रही है तो अमुक मंत्र का प्रयोग करें। इस आधार पर अनेक लोगों ने अपनी समस्या का निवारण किया है। अनेक प्रकार के विघ्न होते हैं और उन विघ्नों के निवारण के लिए अनेक प्रकार के मंत्र के प्रयोग हैं।
आत्माराधना
जप का एक प्रयोजन हैµआत्माराधना। आत्मा की आराधना के लिए मंत्र का प्रयोग होता है। एक मंत्र ले लिया और आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया। वह मंत्र चलेगा, आत्मा की स्मृति होती रहेगी।
जप, धारण और भावनाµइन तीन शब्दों का प्रयोग होता रहा है। ये तीनों लगभग एक कोटि में आ जाते हैं। चार प्रकार की धारणाएँ हैंµपार्थिवी धारणा, आग्नेयी धारणा, जलीय धारणा और वायवीय धारणा। इन धारणाओं का प्रयोग बहुत परिवर्तन लाने में समर्थ है। भावना भी जप का एक प्रकार है। जप, धारणा और भावनाµये सब स्वाध्याय के प्रकार बन जाते हैं। इनका उद्देश्य हैµआत्मा के साथ तादात्म्य स्ािापित करना। व्यक्ति के सामने एक ध्येय होता है कि मुझे ऐसा बनना है। उस ध्येय के साथ तादात्म्य अथवा एकात्मकता स्थापित होती है, तब व्यकित बदल सकता है। परिणमन निरंतर होता रहता है। यदि परिणमन न हो तो रूपांतरण नहीं हो सकता, परिवर्तन नहीं हो सकता। कहा गयाµआत्मा की आराधना के लिए अर्हत् का जप करो। अर्हत् के जप का अर्थ हैµअर्हत् की स्मृति। जब यह अर्हत् की भावना प्रखर होती है, व्यक्ति के भीतर छिपा अर्हत् प्रकट होने लग जाता है। वह अर्हत् जिसे अपना ध्येय नहीं बनाया है, व्यक्ति को अर्हत् नहीं बनाता है किंतु अर्हत् की स्मृति का योग पाकर व्यक्ति स्वयं अर्हत् रूप में प्रकट होना शुरू हो जाता है। परिवर्तन के लिए जरूरी है तन्मय होना। केवल पढ़ने अथवा सिद्धांत जानने मात्र से परिवर्तन संभव नहीं है।

(क्रमशः)