संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
 
(39) अशुभे न रतिं याति, विपाकं परिचिन्तयन्।
वैविध्यं जगतो दृष्ट्वा, नासक्तिं भजते पुमान्।।
 
कर्म-विपाक का एकाग्र चिंतन करने वाला मनुष्य अशुभ कार्य में रति-आनंद का अनुभव नहीं करता। यह विपाकविचय का फल है। जगत् की विचित्रता को देखकर मनुष्य संसार में आसक्त नहीं बनता, यह संस्थान-विचय का फल है।
 
(40) विशुद्धं जायते चित्तं, लेश्ययापि विशुद्ध्यते।
अतीन्द्रियं भवेत् सौख्यं, धम्र्यध्यानेन देहिनाम्।।
 
धम्र्यध्यान के द्वारा प्राणियों का चित्त शुद्ध होता है, लेश्या विशुद्ध होती है और अतीन्द्रिय-आत्मिक सुख की उपलब्धि होती है।
 
(41) विजहाति शरीरं यो, धम्र्यचिन्तनपूर्वकम्।
अनासक्तः स प्राप्नोति, स्वर्गं गतिमनुत्तराम्।।
 
जो धम्र्य-चिंतनपूर्वक शरीर को छोड़ता है, वह अनासक्त व्यक्ति स्वर्ग और क्रमशः अनुत्तरगति-मोक्ष को प्राप्त होता है।
ध्याता के लिए प्रारंभिक अवस्था में धम्र्य-ध्यान ही उपयुक्त है। धर्म चित्त-शुद्धि का केंद्र है। राग-द्वेष व मोह आदि चित्त-अशुद्धि के मूल हैं। इनसे आत्मा बंधती है। मुक्ति के लिए वीतरागता अपेक्षित है। वीतराग व्यक्ति इंद्रिय-सुखों में आसक्त नहीं होता। उसके सामने आत्म-सुख है, वह इंद्रियों से गाह्य नहीं होता। वीतरागता आत्म-धर्म है। अतः उससे होने वाला सुख भी आत्म-सुख या अतीन्द्रिय आनंद है। धम्र्य-ध्यान से केवल चेतन का ही शोधन नहीं होता, अवचेतन मन के संस्कार भी मिटाए जाते हैं। अवचेतन मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। चेतन की अशुद्धि का मूल यह अवचेतन मन ही है। ध्यान हमारे मन की गहरी तहों में घुसकर समस्त मलों का प्रक्षालन कर देता है। समता-स्रोत सबके लिए समान प्रवाहित हो जाता है। संसार में न कोई शत्रु रहता है और न कोई मित्र। अहिंसा का द्वार हमेशा के लिए खुल जाता है। इस दशा में शरीर छोड़ने वाले साधक के लिए स्वर्ग और अपसर्ग के सिवाय कोई मार्ग नहीं होता।
(1) आज्ञाविचय-आगम के अनुसार सूक्ष्म पदार्थों का चिंतन करना।
(2) अपायविचय-हेय क्या है, इसका चिंतन करना।
(3) विपाकविचय-हेय के परिणामों का चिंतन करना।
(4) संस्थानविचय-लोक या पदार्थों की आकृतियों, स्वरूपों का चिंतन करना।
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान-ये ध्येय हैं। जैसे स्थूल या सूक्ष्म आलंबन पर चित्त एकाग्र किया जाता है, वैसे ही इन ध्येय-विषयों पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। इनके चिंतन से चित्त-निरोध होता है, चित्त की शुद्धि होती है, इसलिए इनका चिंतन धम्र्य-ध्यान कहलाता है।
आज्ञाविचय से वीतराग-भाव की प्राप्ति होती है। अपायविचय से राग, द्वेष, मोह और उनसे उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्ति मिलती है। विपाकविचय से दुःख कैसे होता है? क्यों होता है? किस प्रवृत्ति का क्या परिणाम होता है-इनकी जानकारी प्राप्त होती है। संस्थान-विचय से मन अनासक्त बनता है, विश्व की उत्पाद, व्यय और ध्रुवता जान ली जाती है, उसके विविध परिणाम-परिवर्तन जान लिए जाते हैं, तब मनुष्य स्नेह, घृणा, हास्य, शोक आदि विकारों से विरत हो जाता है।
 
(42) अप्युत्तमसंहननवतां पूर्वविदां भवेत्।
शुक्लस्य द्वयमाद्यन्तु, स्याच्च केवलिनोऽन्तिमम्।।
 
शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद ‘पृथक्त्व-वितर्क-सविचार तथा एकत्व-वितर्क-अविचार’ उत्तम संहनन वाले तथा पूर्वधरों में पाए जाते हैं। शेष दो भेद केवलज्ञानी में पाए जाते हैं।
 
(43) सूक्ष्मक्रियोऽप्रतिपाती, समुच्छिन्नक्रियस्तथा।
क्षपयित्वा हि कर्माणि, क्षणेनैव विमुच्यते।।
 
सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रिय-शुक्लध्यान के इन दो अंतिम भेदों में वर्तमान केवली कर्मों का क्षय कर क्षणभर में मुक्त हो जाता है।
शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं-
(1) पृथक्त्व-विचार-सविचार-एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का चिंतन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन होता रहता है।
(2) एकत्व-वितर्क-अविचार-एक द्रव्य के एक पर्याय का चिंतन करना। इसमें ध्येय का परिवर्तन नहीं होता।
(3) सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाती-तेरहवें गुणस्थान के अंत में होने वाला ध्यान। इसकी प्राप्ति के बाद ध्यानावस्था का पतन नहीं होता।
(4) समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति-अयोगावस्था में होने वाला ध्यान। इसकी निवृत्ति नहीं होती।
अंतिम दो भेद केवलज्ञानी में ही पाए जाते हैं।
 
(44) अन्तर्मुहूत्र्तमात्र×च, चित्तमेवात्र तिष्ठति।
छद्मस्थानां ततश्चित्तं, वस्त्वन्तरेषु गच्छति।।
 
छद्मस्थ का चित्त एक विषय में अंतर्मुहूत्र्त तक ही स्थिर रहता है, फिर वह दूसरे विषय में चला जाता है।
 
(45) स्थितात्मा भवति ध्याता, ध्यानमैकाग्रयमुच्यते।
ध्येय आत्मा विशुद्धात्मा, समाधिः फलमुच्यते।।
 
ध्यान के चार अंग हैं-ध्याता, ध्यान, ध्येय और समाधि। जिसकी आत्मा स्थित होती है, वह ध्याता-ध्यान करने वाला होता है। मन की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। विशुद्ध आत्मा-परमात्मा ध्येय है और उसका फल है-समाधि।
 
(क्रमशः)