आत्मा का शुद्ध स्वरूप, कर्मयुक्त अवस्था क्षायिक भाव है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मा का शुद्ध स्वरूप, कर्मयुक्त अवस्था क्षायिक भाव है : आचार्यश्री महाश्रमण

नंदनवन, 9 नवंबर, 2023
महामनीषी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जिनवाणी का रसास्वाद करते हुए फरमाया कि हमारी आत्मा, चेतना, जीवन का स्वरूप क्या है? जीव का स्वरूप भाव है। द्रव्य आत्मा एक पिंड हो गया जो असंख्येय प्रदेशों वाला है। भाव कर्मों से संबंधित है। कर्मों के उदय और विलय से होने वाला चेतना का परिणाम भाव है। जैसे आठों कर्मों का क्षय हो गया तो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन निरंतरायता आदि-आदि गुण प्रकट हो जाते हैं। ये गुण कर्मों के क्षय होने से उजागर हुए हैं। क्षायिक भाव जीव का स्वरूप है। उपशम और क्षयोपशम भाव भी क्षायिक भाव के कुछ अंश हैं। जैसे श्रावक सामायिक करता है, तो कुछ समय के लिए श्रमण की तरह बन जाता है।
क्षायिक भाव और उपशम भाव की तुलना हम साधु और श्रावक से कर सकते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व तो तो सकता है, पर वे श्रेणी उपशम भाव की है। उपशम भाव तो चार दिनों की चाँदनी जैसा है। नंदनवन की तुलना भी उपशम भाव से कर सकते हैं। उपशम भाव गया तो वो नजारा गया फिर कषाय का उदय चालू हो जाता है। संसारी अवस्था में जीव के औदयिक भाव भी रहता है। क्षायिक भाव शुद्ध स्वरूप है, तो औदयिक भाव विकृत रूप है। भगवती में भाव को नाम कहा गया है, वो छः प्रकार का होता है। वैसे भाव के पाँच प्रकार बताए गए हैं। नमन, नाम, परिणाम, भाव ये एकार्थक होते हैं। भाव के छः प्रकार नाम रूप में इस प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक। संयोग से होने वाला भाव सान्निपातिक भाव कहलाता है।
आत्मा का शुद्ध स्वरूप, कर्ममुक्त अवस्था क्षायिक भाव है। हमारी साधना फलित होते हुए पूर्ण फलित हो जाए तो क्षायिक भाव आ सकता है। केवली के भी चार अघाती कर्म बाकी हैं, इसलिए उनके पूर्णतया क्षायिक भाव नहीं है। दुनिया में ऐसा कोई जीव प्रतीत नहीं होता है कि जिसके क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव न हो। स्थावर जीवों में भी क्षयोपशम भाव होता है, जो अत्यंत अविकसित प्राणी है। दोनों में से एक भाव तो होगा ही होगा। जयाचार्य के अनेक ग्रंथों में तत्त्व बोध विस्तार रूप से मिलता है। आचार्य भिक्षु के ग्रंथ तो तेरापंथ के शास्त्र हैं। डाॅ0 पीयूष सक्सेना नेचरोपैथी स्पेशलिस्ट एवं उपासक पारसमल दुगड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि आसन-प्राणायाम से शारीरिक बल बढ़ सकता है। हमारे में अनंत शक्ति है, पर कुछ कारण है, जिससे वह प्रकट नहीं हो सकती। वे हैं-भय, आलस्य, अज्ञान, संकल्प-शक्ति का अभाव, एकाग्रता का अभाव आदि। हमें ध्यान-जप से शक्ति का जागरण कर शक्ति-संपन्न बनने का प्रयास करना चाहिए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।