साधु हो या श्रावक यदि गलती हो जाए तो गुरु से प्रायश्चित स्वीकार कर शुद्ध हो जाए : आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन, 11 नवंबर, 2023
अष्टगणी संपदा से सुशोभित आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आगम वाणी की अमी वर्षा कराते हुए फरमाया कि इंसान जो सामान्य स्तर का होता है, वह प्रथम गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक का आदमी हो सकता है। सामान्य इसलिए कि इनसे भूल हो सकती है। सातवें गुणस्थान से लेकर चैदहवें गुणस्थान के जो इंसान हैं, उनसे अशुभ योग रूप कोई गलती या प्रमाद नहीं हो सकता। प्रमाद दो प्रकार का होता हैµएक अशुभ योग रूप प्रमाद और एक प्रमाद आश्रव (अध्यात्मलीनता का अभाव)। अशुभ योग रूप प्रमाद का तो साधु के त्याग होता है, पर प्रमाद आश्रव का त्याग नहीं होता है। छठे गुणस्थान में प्रमाद आश्रव चालू रहता है। इसलिए उसे प्रमत संयत गुणस्थान कहते हैं। गलती छोटी या बड़ी हो सकती है। पर उसका प्रायश्चित लेना होता है। कभी साधु के मजबूरी में भी प्रतिसेवना हो सकती है।
भगवती सूत्र में यहाँ प्रायश्चित दस प्रकार का बताया गया हैµआलोचना, प्रतिक्रमण, तदफभया आदि। प्रायश्चित एक प्रकार की चिकित्सा पद्धति है। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में हम आध्यात्मिक चिकित्सा मान सकते हैं। साधु से कोई गलती हो गई तो वह धर्म के संदर्भ में रोगी साधु है। आचार्य डाॅक्टर होते हैं। प्रायश्चित दवा है। इससे गलती रूपी रोग ठीक हो सकता है। धर्म के प्रकार में चिकित्सा भी दो प्रकार की होती हैµएक छेद प्रायश्चित और तप-स्वाध्याय प्रायश्चित। अलग-अलग विधि-सम्मत प्रायश्चित दिया जाता है। साधु हो या श्रावक यदि गलती हो जाए तो गुरु से प्रायश्चित स्वीकार कर शुद्ध हो जाए। छेद आए तो आए पर प्रायश्चित ले शुद्ध हो जाना चाहिए। गलती या दोष तो लग सकता है। प्रायश्चित लेने वाला ऋजुता से अपनी गलती या दोष को गुरु को बता देना चाहिए। ऋजुभूत की शोधि हो सकती है।
प्रायश्चित लेने वाला ऋजुता का और प्रायश्चित देने वाला गंभीरता का प्रयोग करें। हमारे यहाँ सामान्यतया दो बार आलोयणा लेने की विधि है। प्रायश्चित सबके लिए कल्याणकारी होता है। अपेक्षा हो तो आचार्य भी अपना प्रायश्चित ले ले। दूसरों का इलाज करने वाला खुद रोगी बन सकता है। पर प्रायश्चित ले लें तो आगे का रास्ता साफ हो सकता है।