उपासना

स्वाध्याय

उपासना

भाग - एक)
पवित्रता की परिभाषा
केवल पढ़ने से, शास्त्रों के पारायण से बहुत कुछ परिवर्तन नहीं आता। परिवर्तन तब आता है, जब भावना, धारणा अथवा मंत्र का प्रयोग, जप, चिंतन-मनन आदि उसके साथ चलें। इस स्थिति में ही रूपांतरण की संभावना की जा सकती है। व्यक्ति ने यह जान लिया-आत्मा है, अर्हत् है। अर्हत् वीतराग होता है, उसमें अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंद होता है। यदि इतना जान लेने मात्र से कुछ होता है तो चुटकी बजाते ही सब कुछ संभव बन जाता किंतु ऐसा होता नहीं है। रूपांतरण के लिए पुनरावृत्ति करनी होती है। जो मंत्र सीखा है, उसकी पुनरावृत्ति करें, सतत स्मृति करें, बार-बार दोहराएँ। दोहराते-दोहराते एक संस्कार का निर्माण होगा। जब यह संस्कार पुष्ट बन जाएगा, परिवर्तन प्रारंभ हो जाएगा। पत्थर पर रेखा नहीं बनती कितु उस पर रस्सी आती रहे, जाती रहे तो चट्टान पर भी एक रेखा खिंच जाती है। परिवर्तन का सूत्र है, सतत स्मृति। आत्मा या अर्हत् की सतत स्मृति करें, वैसा परिणाम शुरू हो जाएगा। आत्मा की स्मृति का अर्थ है, चेतना की स्मृति। चेतना की स्मृति का अर्थ है, पवित्रता की स्मृति। जहाँ चेतना का बोध नहीं है, वहाँ पवित्रता और अपवित्रता की व्याख्या नहीं की जा सकती। वहाँ सब कुछ पवित्र मान लिया जाता है। सांभर की झीलमें जो भी गिरे, वह नमक ही नमक है। जिस आचरण से आत्मा का हित होता है, वह पवित्र है और जिस आचरण से आत्मा का अहित होता है, वह अपवित्र है। यह एक निश्चित परिभाषा बनती है।
जप कैसे करें?
एक प्रश्न है-जप कैसे करें? यदि इसका बोध नहीं है तो सफलता नहीं मिलेगी। प्रत्येक कार्य की सिद्धि विधि के साथ होती है। यदि व्यक्ति जप की विधि (टैक्नीक) को नहीं जानता, जप का वांछित परिणाम उसे नहीं मिलता। जप के प्रयोग की विधि का बोध अपेक्षित है। पहला बिंदु है किस स्थान पर जप करें? जप के लिए क्षेत्र उपयुक्त होना चाहिए। आसन भी उपयुक्त होना चाहिए। मंत्र का उच्चारण कैसे करें, उसका भी बोध होना चाहिए। ध्वनि-तरंगों का अपना अलग प्रभाव होता है। एक ध्वनि ऐसी होती है, जासे बाधा भी डाल देतीहै। करते हैं बाधा-निवारण के लिए किंतु ध्वनि-तरंगें सम्यक् नहीं हैं तो बाधा अधिक गहरी बन जाएगी। उच्चारण का विवेक जरूरी है। जहाँ विराम देना है, वहाँ विराम दें, लयबद्ध-तालबद्ध उच्चारण हो। कहाँ मध्यम स्वर होना चाहिए? कहाँ उदात्त और मंद स्वर होना चाहिए? इन सबका सम्यक् योग नहीं होता है तो जो चाहिए, वह नहीं मिल पाता। यदि गलत उच्चारण होता है तो परिणाम भी विपरीत आ सकता है। कारण स्पष्ट है-ध्वनि तरंगें अपने ढंग से असर करेंगी। यदि हमने ध्वनि तरंगों को अस्त-व्यस्त कर दिया तो उनका प्रभाव विपरीत हो जाएगा।
वैदिक साहित्य का प्रसंग है। देवता और दैत्य में संघर्ष चल रहा था। दैत्य ने इंद्र को पराजित करने के लिए एक मंत्र बनाया-इंद्रशत्रुः वर्धस्व। जो इंद्र का शत्रु है, वह बढ़े। जप करते समय विस्मृति हो गई। उच्चारण का विपर्यय हो गया। जप करना शुरू कर दिया-इंद्रः शत्रुर्वर्धस्व। इसका अर्थ हुआ-जो इंद्र मेरा शत्रु है वह बढ़े। इस जप ने ऐसे प्रकंपनों का निर्माण किया, दैत्य स्वयं पराजित हो गया।
जप की प्रक्रिया
जिस मंत्र का जप करना है, उसका स्पष्ट और शुद्ध उच्चारण करें, तभी सफलता की संभावना की जा सकती है। जप की प्रक्रिया यह है-पहले मंत्र को तेज ध्वनि से शुरू करें, उसके बाद मध्यम स्वर-मंद स्वर में जप करें, फिर वह जप मानसिक बन जाए। पहले वाचिक रहता है, फिर अर्द्धवाचिक और उसके बाद मानसिक बन जाता है। वाचिक जप में होंठ और जीभ दोनों की सक्रियता रहती है। अर्द्धवाचिक जप में वह कुछ कम हो जाता है। जहाँ मंद ध्वनि होती है, वहाँ ध्वनि होंठों तक आकर अटक जाती है, बाहर नहीं निकलती। जहाँ मानसिक जप प्रारंभ हो गया, वहाँ जीभ और होंठ, दोनों के प्रकंपन मंद हो जाते हैं, केवल अनुभूति शेष रहती है, केवल मंत्र की स्मृति मात्र रहती है, यह जप की प्रक्रिया है। मंत्र का उच्चारण करें, दस सेकंड के लिए विराम दें, फिर उच्चारण करें और विराम दें। विराम का तात्पर्य यह है-जिस मंत्र का उच्चारण किया, जो भावना या संकल्प किया, उसके साथ तादात्म्य हो जाए। मंत्र जप करना कोई घास काटना नहीं है, मंत्र में विराम देकर ध्येय के साथ बिलकुल समरस होना होता है। जब मंत्र का जप प्रारंभ होता है, ध्येय सामने रहता है। जैसे-जैसे मंत्र का जप चलेगा, ऐसा लगेगा कि ध्येय निकट आ रहा है। एक क्षण ऐसा आएगा, जब अनुभूति होगी-ध्येय स्वयं में समाविष्ट हो गया है। ध्याता और ध्येय की दूरी मिट गई है। दोनों समरस-एकरस हो गए हैं।
जो लोग इस विधि के साथ जप करते हैं, वे अच्छा लाभ उठा सकते हैं। जो इस विधि के साथ नहीं करते, उन्हें बहुत लाभ नहीं मिल पाता। एक खेती सघनता से होती है। उसमें बराबर हल चलता है और विधिवत् बीज बोया जाता है। एक खेती बिना विधि होती है। चार-पाँच बीज इधर डाल दिए और पाँच-दस बीज उधर डाल दिए-इसे प्रकीर्ण खेती कहते हैं। सघन खेती होगी तो फसल अच्छी होगी। प्रकीर्ण खेती होगी तो कहीं फसल उगेगी, सारा खेत खाली पड़ा रहेगा। हम सघन जप का प्रयोग करें तो लाभ की व्यापक संभावना हो सकती है।
प्रश्न आस्था का
जप के साथ जुड़ा एक प्रश्न है आस्था का। बहुत लोगों में जप के प्रति आस्था ही नहीं होती। वे कहते हैं-मंत्र बोलने से क्या होगा? मन में एक संदेह बना रहता है और वह संदेह मंत्र की सफलता में बाधा बन जाता है। आज इस वैज्ञानिक युग में आस्था के निर्माण में कोई कठिनाई नहीं लगती। ध्वनि में आज विज्ञान ने जो खोजें की हैं, निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं, जिन रहस्यों का उद्घाटन हुआ है, वे मनुष्य की आस्था को पुष्ट बनाने वाले हैं। हम संगीत का निदर्शन लें। संगीत इसके परिवार का ही एक सदस्य है। संगीत भी एक ध्वनि का प्रकंपन है। एक प्रकार का संगीत गाया, लोग प्रसन्नता से झूम उठे। दूसरे प्रकार के संगीत के प्रकंपन आए, लोग उदास हो गए, ऊब गए। सैकड़ों लोग शांत बैठे हैं। एक ध्वनि प्रकंपन का प्रयोग किया, लोगों के चेहरे से उल्लास टपकने लगा। ध्वनि का प्रयोग बदला, लोगों का उल्लास आवेश में बदल गया। वे आपस में लड़ने-झगड़ने लगे। इतना भारी संघर्ष हुआ कि आखिर पुलिस को बुलाना पड़ा। ध्वनि प्रकंपनों का प्रयोग मस्तिष्क की भाव धारा को बदल देता है।
मौत का फतवा रद्द हो गया
प्राचीन काल की घटना है। सम्राट् अकबर एक कवि पर क्रुद्ध हो गया। उसने मंत्री को आदेश दिया-इस कवि को हाथी के पैर से कुचल दिया जाए। मंत्री यह सुनकर स्तब्ध रह गया। मंत्री ने सोचा-यह कवि सम्राट् को बहुत प्रिय है। इसके बिना सम्राट् कैसे रह पाएगा? आदेश को टालने का परिणाम भी स्पष्ट है। सम्राट् आवेश में कुछ भी कर सकता है। मंत्री ने आखिर एक उपाय निकाला। हाथी को बुला लिया। एक ओर हाथी खड़ा है। उसके परिपाश्र्व में कवि उपस्थित है। जनता की भीड़ इस हुक्म को देखने के लिए उमड़ पड़ी। सम्राट् मंच पर आसीन थे। योजना के अनुसार तानसेन को आमंत्रित किया। तानसेन ने ध्रुवपद गाना शुरू किया। समयबद्ध संगान ने सबको बाँध लिया। हाथी झूम उठा। ध्रुवपद चलता रहा। हाथी वहीं ठहर गया, एक कदम भी आगे नहीं सरका। वह संगीत की लय में खो गया।
हाथी, सर्प आदि कुछ प्राणी ऐसे होते हैं, जो संगीत के आधार पर बदल जाते हैं। उधर तानसेन का संगीत चल रहा है, दूसरी ओर लोग देख रहे हैं-अब क्या होगा? हाथी शांत खड़ा रहा। समय पूरा हो गया। संगीत की स्वर लहरियाँ बंद हो गईं। सम्राट् का आवेश उतर गया और मौत का फतवा रद्द हो गया।
ध्वनि का महत्त्व
शब्द और ध्वनि के महत्त्व को संगीत की स्वर लहरियों में पहचाना जा सकता है। मंत्र की स्वर लहरियाँ हैं। उनमें बहुत परिवर्तन घटित होता है। एक शब्द के द्वारा व्यक्ति को प्रसन्न भी किया जा सकता है, आविष्ट भी किया जा सकता है। रणभूमि में जो बाजे बजाये जाते हैं, रणभेरी बजती है, इसका कारण भी यही है-सैनिक इतने जोश में आ जाएँ कि मरने का डर भूल जाएँ। उस जोश में वे ऐसे लड़ें कि शत्रुओं को परास्त कर दें। शब्द के चमत्कार से प्राचीन युग भी अपरिचित नहीं है और आज का युग भी अपरिचित नहीं है, इसलिए मंत्र के विषय में अनास्था होने का कोई कारण नहीं हो सकता।
मंत्र: चुनाव का प्रश्न
एक प्रश्न है चुनाव का। किस मंत्र का चुनाव करें? मंत्र का चुनाव अपने ध्येय पर निर्भर है। जिसे आत्मा की आराधना करनी है, उसे आत्मा के अनुकूल मंत्रों का चुनाव करना होगा। जिसे स्मृति और बुद्धि का विकास करना है, उसे सरस्वती मंत्र का चुनाव करना होगा। जो प्रयोजन है, उसके अनुरूप ही मंत्र का चुनाव होता है। ऐसा नहीं है कि एक ही मंत्र सबके लिए समर्थ हो। यद्यपि कुछ मंत्र ऐसे हैं, जिनका सर्वत्र उपयोग किया जा सकता है किंतु सामान्यतः ऐसा नहीं होता। हमारे नाना-प्रकार के कर्म हैं। यदि एक ही उपाय से सब कुछ होता तो साधना के इतने उपक्रम नहीं बतलाए जाते। किसी कर्म-संस्कार को मिटाने के लिए ध्यान का एक उपाय है, किसी के लिए मंत्र और स्वाध्याय एक उपाय है। किसी संस्कार के लिए तपस्या एक उपास है, आसन का प्रयोग भी एक उपाय है। ‘एकै साधे सब सधे’ यह कथन सापेक्ष है। एक मन को साधो, सब सध जाएगा, यह बात ठीक है पर इसे सर्वत्र लागू नहीं किया जा सकता। इसीलिए जितने प्रयोजन हैं, उतने ही मंत्र निर्दिष्ट हैं। किस समस्या के समाधान के लिए किस मंत्र का जप करें? इसके लिए गुरु का मार्गदर्शन चाहिए।
जप के साथ समय और क्षेत्र का भी महत्त्व है। सामान्यतः जिस समय मस्तिष्क शांत हो, वह जप के लिए उत्तम समय है। रात को दो से चार बजे का समय मंत्र के लिए उत्तम है। जप के लिए मुख्यतः पूर्व और उत्तर-ये दो दिशाएँ श्रेष्ठ मानी गई हैं।

(क्रमशः)