संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
 
(पिछला शेष)  स्वबोध के अभाव में अज्ञान मुखर रहता है। संस्कार अज्ञान की देन है। उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। वह स्वतंत्र शब्द का प्रयोग कर सकता है तथा अपने को स्वतंत्र मान भी सकता है किंतु वस्तुतः वह स्वतंत्र है नहीं। स्वतंत्र वही व्यक्ति है जिसका अपना तंत्र-अपना अनुशासन होता है। संस्कारों से संचालित व्यक्ति परतंत्र है, वह उनसे प्रवृत्त होकर नए संस्कारों का अर्जन करता है। फिर वे संस्कार ही उसे सदा प्रेरित करते रहते हैं। इसलिए जितना भी दुःख दृश्य है उसके पीछे संस्कारों की प्रबल छाया है। ज्ञान और ध्यान दोनों की युति संस्कारों का परिशोधन व निस्तारण करती है। ज्ञान से समझ आती है और ध्यान पुराने संस्कारों का निष्कासन करता है और नयों को अर्जित होने नहीं देता। स्वबोध का मार्ग जिससे सहज ही सरल बन जाता है, संस्कारों का उच्छेद हो जाता है तथा दुःख का उन्मूलन भी।
धारणा, मान्यता, अल्पज्ञता, बाह्य परिवेश आदि पूर्वाग्रह के कारण बनते हैं। पूर्वाग्रही व्यक्ति की दृष्टि एकांगी होती है, वह दूसरों की यथार्थ बात को भी स्वीकार नहीं करता। उसके लिए वही यथार्थ है जो वह कहता है, सोचता है और करता है। उससे समस्याएँ सर्जित होती हैं। यह सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। अनेकांत या अनाग्रह दृष्टिकोण विकसित हो तो इसका समाधान निकल सकता है। अनेक स्थलों पर इसका प्रयोग होता भी है और वातावरण प्रिय भी बनता है। अनेकांत दृष्टिवाला व्यक्ति अन्य व्यक्ति के चिंतन से छिपे तथ्य को देखने, समझने का प्रयास करता है। वह जानता है कि अन्य व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से बात को रख रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के प्रतिद्वंद्वी ने असेम्बली में कहाµआपको पता होगा कि आप कौन हैं? लिंकन ने मुस्कराते हुए कहाµमुझे पता है, मैं एक चमार का पुत्र हूँ। हो सकता है आपकी मेरे से कोई शिकायत हो, किंतु मेरे पिता एक कुशल चर्मकार थे, मैं वैसा नहीं हूँ। सामने वाला शांत हो गया। स्वबोध से आग्रह का शमन होता है, अनाग्रही दृष्टि विकसित होती है। दुःख मुक्ति के लिए ये विविध उपाय हैं, प्रयोग हैं।
‘कम खाना गम खाना’µइनमें स्वास्थ्य-आरोग्य का राज छिपा है। विवशता, दुर्बलता के बिना सहज-शांत भाव से सहिष्णुता, मृदुता, अदम्भ, सरलता आदि सात्त्विक गुणों का अभ्यास आरोग्य के प्रमुख निमित्त बनते हैं। मन की अशुद्धि दुष्प्रवृत्तियों या असत् वृत्तियों से अर्जित है। सतोगुणµसात्त्विक, शम, दम, दया, अहिंसा, मैत्री आदि भावों के द्वारा मन का शोधन होता है। ‘शवसंकल्पमस्तु मे नमः’µमेरा मन शुभ-शिव संकल्प वाला हो? यानी मैं सदा अपने मन को शुभ भावों से भावित करता रहूँµइस प्रकार की जागृति से मन का परिशोधन होता है, शोधित मन शांतµतनावमुक्त रहता है, शरीर स्वतः ही प्रसन्न रहता है।
आरोग्य का एक बड़ा कारण हैµजीवन में श्रम की प्रतिष्ठा। काम करने वाला छोटा और न करने वाला बड़ा या दूसरों के श्रम पर जीने वाला महान्µयह धारणा किसी भी दृष्टि से यथार्थ तो नहीं है, किंतु सामाजिक परिस्थितिवश व्यक्ति इसे अपना लेता है, किंतु स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अहितकर होती है। आज देखते हैंµश्रम घटा, रोग बढ़ा। श्रम के अभाव में सहज साध्य कार्य असाध्य बन गए, अनेक बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा जमा लिया। चैबीस घंटे ए0सी0 में रहने वाले धनिक व्यक्ति को डाॅक्टरों ने सलाह दी कि आप एक घंटा गर्म पानी में लेटे रहो, यही आपकी चिकित्सा है। दिन-भर एयरकंडीस्नर में रहूँ और एक घंटा पानी में रहकर स्वस्थ बनूँ, इससे अच्छा हैµए0सी0 में रहना ही छोड़ दूँ। उसने वैसा किया और स्वस्थ रहने लगा।
श्रम शरीर के लिए अपेक्षित हैµवह देह की प्रकृति है। प्रकृति की अवहेलना करना अहितकर है। व्यायाम, योगासन, प्राणायाम आदि भी श्रम है, शरीरतंत्र को स्वस्थ रखने में ये नितांत व्यवहार्य है। आरोग्य के लिए इनका अनुशीलन अपेक्षित है।
 
मेघः प्राह
 
(51) जिज्ञासामि कथं नाथ! दुर्बलं जायते मनः?
कथं बलयुतं तत् स्याद्, येन शक्तिः प्रवर्धते।।
 
मेघ बोलाµनाथ! मन दुर्बल कैसे होता है? वह बलवान् कैसे बनता है, जिससे शक्ति में वृद्धि हो, यह मैं जानना चाहता हूँ।
सबल मन बहुत कम लोगों के पास है, प्रायः सभी दुर्बल मन को लेकर जी रहे हैं। बहुत यह जान भी नहीं पाते हैं कि क्या मन सशक्त बन सकता है? उन्हें इसका भी बोध नहीं है कि मन दुर्बल क्यों होता है? यह बहुत आवश्यक है कि व्यक्ति पहले दुर्बल मन के कारणों को जाने और फिर सशक्त बनाने का उपक्रम करें।
मन के दुर्बल होने के कारण बहुत साफ हैं। आए दिन मनुष्य इन्हीं में से गुजरता हैµबच्चे भी बचपन में इसके शिकार हो जाते हैं। फिर वह संस्कार आगे से आगे पुष्ट होता चला जाता है। भय, शोक, चिंता, क्रोधादि आवेग, संवेदन और चिरकालीन विचार ये कारण हैं।
उपरोक्त कारणों से मुक्त मनुष्य का मिलना दुर्लभ है। पारिवारिक सामाजिक, राजनैतिक, वैश्विक वातावरण ही ऐसा है कि जो इन कारणों को उत्तेजित कर देते हैं। मनुष्य यह जानता है कि जो होने का है वह होगा, लेकिन फिर भी स्व-संबंधी, परिवार संबंधी तथा अन्यान्य प्रकार की चिंता उसे घेरे रहती है। भोजन, पानी, अर्थ, शादी-विवाह, संतान आदि की चिंता आगे से आगे एक न एक बनी रहती है। चिंता चिता-सम है। वह मन को बलवान् नहीं बनने देती है। इसका दुष्प्रभाव तनाव, बीमारियों आदि के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगत होता है।
अप्रिय संवेदन, अप्रिय घटना, अप्रियता की आशंका शोक को जन्म देती है। आशंका के कारण मन में शोक का संस्कार पुष्ट होता रहता है। शोकग्रस्त मन के सशक्तता की कल्पना नहीं की जा सकती।
क्रोध आदि आवेगों के आंतरिक कारण भी हैं और बाह्य कारण भी। बाह्य कारण ज्ञान के अभाव में आंतरिक कारणों को उत्तेजित कर देते हैं। आवेग-आवेश बाहर प्रकट हो जाते हैं। क्रोध का मुख्य निमित्त बनता हैµमन के अनुकूल प्रवर्तन नहीं होना। बालक से लेकर बड़े बुजुर्गों तक में यह भाव दिखाई देता है। सच्चाई यह है कि इस जगत में ‘मैं जैसा सोचूँ, मैं जैसा कहूँ, वहीं हो।’ यह संभव नहीं होता है तब व्यक्ति के अहं पर चोट पहुँचती है, क्रोध का वेग सहज उभर आता है। आवेगों पर नियमन न होने से संवेदन व चिंतन दीर्घकालिक बनता चला जाता है, अवचेतन मन में एक ग्रंथि निर्मित हो जाती है जिससे सहजतया छुटकारा पाना शक्य नहीं होता। जिसके मन में इनसे मुक्त होने की भावना जागृत होती है और जो अपने पर अपना अनुशासन करना चाहता है, उसके लिए मन को सशक्त बनाने की कोई कठिनाई नहीं है। जैसे ही वह जागृत होता है और उपायों का अवलंबन लेता है मन शांत संतुलित व शक्तिशाली बनने लगता है। निम्न प्रयोगों का अभ्यास मन की सशक्तता में निस्संदेह कारगर होते हैं। वे प्रयोग हैंµ
(1) दीर्घश्वास, (2) चित्त की एकाग्रता, (3) विचार-संयम, (4) संवेदन नियमन, (5) आवेग-निरोध, (6) शिथिलीकरण, (7) संकल्पशक्ति।
दीर्घश्वासµदीर्घश्वास का प्रयोग मन को स्थिर-शांत करता है। दीर्घश्वास के अभ्यास से शरीर, मन और भाव तंत्र तीनों को स्वास्थ्य प्राप्त होता है। मन की चंचलता इससे शांत होती है तथा आवेगों और आवेगों पर नियमन होना है। बीमारियाँ, अशांति, तनाव, क्रोध आदि आवेग छोटे श्वास की देन है। श्वास के साथ मन के उतार-चढ़ावों का घनिष्ठ संबंध है। दीर्घश्वास इनकी चिकित्सा हैं। जब मन शांत व प्रसन्न होता है तब अपने आप उसकी तेजस्विता और शक्ति का संवर्धन होने लगता है।
एकाग्रताµएकाग्रता की शक्ति से कौन परिचित नहीं है? विकास में उसकी अहं भूमिका है। लक्ष्यवेध की सफलता में अर्जुन की एकमात्र एकाग्रता की ही महत्ता थी। एकाग्रता में असीम शक्ति है। उसके द्वारा जो कार्य सधते हैं उनकी कल्पना भी सामान्य व्यक्ति के सोच से परे है। अध्यात्म के क्षेत्र में तो इसका मूल्यांकन हजारों-लाखों वर्ष पूर्व हो चुका था। विज्ञान भी आज उसकी मूल्यवत्ता स्वीकृत कर चुका है। इसका जादू सभी क्षेत्रों में है।
चित्त का एक विषय पर केंद्रित होना एकाग्रता है। एकाग्रता के अवलंबन बाह्य भी होते हैं और आंतरिक भी। जैसे शरीर के अनेक स्थान आलंबन बनते हैं। वैसे अनेक आंतरिक स्थान भी। इससे केंद्र जागृत होते हैं और सुप्तशक्तियों का जागरण भी होता है। इससे मन को सबल बनने में सहज ऊर्जा प्राप्त हो जाती है।
विचार-संयमµसंकल्प, चिंतन और स्मृतिµये मन के कार्य हैं। मन के पास यह शक्ति नहीं है कि वह विवेक कर सके इनमें कौन-सा करणीय है और कौन सा करणीय नहीं है। वह पशु की भाँति जुगाली करता रहता है। इससे उसकी कुछ हानि नहीं होती, किंतु ऊर्जा का व्यर्थ दुरुपयोग होता रहता है। एक क्षण भी वह विश्राम नहीं लेता। आवश्यक-अनावश्यक विचारों की शंृखला चलती रहती है। इससे उसके सबल बनने की कल्पना नहीं की जा सकती। उसका संयम-नियंत्रण हो, विवेक चेतना जागृत हो, होश-सचेतनता का अभ्यास हो तो मन पर अंकुश लग सकता है, वह कल्पना आदि से मुक्त हो सकता है। इससे उसकी शक्ति का संवर्धन भी होगा और शांति की प्राप्ति भी होगी।
संवेदन नियमनµजीवन में प्रिय और अप्रिय दोनों प्रकार के प्रसंग आते हैं। उनकी प्रतिक्रिया भी प्रिय और अप्रिय दोनों रूपों में होती है। मन इन संवेदनों से प्रभावित होता है। कुछ संवेग क्षणिक होते हैं और कुछ चिरकालीन बन जाते हैं। अवचेतन मन में इन संवेदनों का स्थायित्व बन जाता है। पुनः मन इनके प्रभाव में आकर उसी प्रकार के भावों के रूप में प्रतिफलित होने लगता है। मन को शक्तिशाली बनाए बिना उन पर नियंत्रण नहीं हो सकता। संवेदना के नियमन में भी संकल्प शक्ति का और अप्रमत्त चेतना की अपेक्षा रहती है जिससे सहज ही संयम सध जाता है।
(क्रमशः)