संबोधि

स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

क्रिया-अक्रियावाद


(3) सुकृतानां दुष्कृतानां, निर्विशेषं फलं खलु।
मन्यन्ते विफलं कर्म, कल्याणं पापकं तथा॥

अनात्मदर्शी लोग सुकृत और दुष्कृत के फल में अंतर नहीं मानते और कर्म को विफल मानते हैंभले-बुरे कर्म का भला-बुरा फल भी नहीं मानते।

चार्वाक दर्शन के प्रणेता आचार्य वृहस्पति की मान्यता में यही तत्त्व है। वे कहते हैंन आत्मा है, न मोक्ष है, न धर्म है, न अधर्म है, न पुण्य है, न पाप है और न उसका फल भी है। संसार के संबंध में वे वर्तमान जगत् को ही प्रमुखता देते हैं। खाओ, पीओ और आराम करोइतना ही है जीवन का लक्ष्य उनकी द‍ृष्टि में। पंचभूतों से आत्मा नाम का तत्त्व उत्पन्‍न होता है और पंचभूतों में ही वह विलीन हो जाता है। पंचभूतों के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं है, इसलिए वर्तमान जीवन ही उनके लिए सब कुछ है। स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आदि न होने से केवल वर्तमान सुख की उपलब्धि ही वास्तविक है। यदि पुण्य, पाप आदि की सत्ता वास्तविक है तो नास्तिकों का क्या होगा? उनका भविष्य कितना अंधकारमय और दु:खपूर्ण होगा! क्षणिक वासना-तृप्ति के लिए क्रूर होना समाज, परिवार और राष्ट्र के लिए भी हितकारक नहीं है।
नास्तिकों की क्रूरता को देख आचार्य सोमदेव ने राजा के लिए कहा है कि उसे नास्तिक दर्शन का विद्वान होना चाहिए। जो राजा उसे जानता है वह राष्ट्र के कष्टों का उन्मूलन कर सकता है। नेता यदि मृदु होता है तो उस पर अनेक व्यक्‍ति चढ़ आते हैं, जब तक उसे दबा देते हैं। अन्यायों को कुचलने के लिए बिना कठोरता के काम नहीं चलता। गीता के सोलहवें अध्याय में जो आसुरी स्वभाव का वर्णन है, वह नास्तिकों का ही स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है।

(4) प्रत्यायान्ति न जीवाश्‍च, न भोग: कर्मणां ध्रुव:।
इत्यास्थातो महेच्छा: स्यु:, महारंभपरिग्रहा:॥

जीव मरकर वापस नहीं आते, फिर से जन्म धारण नहीं करते और किए हुए कर्मों को भोगना आवश्यक नहीं होताइस आस्था से उनमें महत्त्वाकांक्षाएँ पनपती हैं। वे महा-आरंभ करते हैं और परिग्रह का महान् संचय करते हैं।

(क्रमश:)