संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
 
भगवान् प्राह
 
(65) उपधीना×च भावानां, क्रोधादीनां परिग्रहः।
परित्यक्तो भवेद् यस्य, व्युत्सर्गस्तस्य जायते।।
 
उपाधि-वस्त्र, पात्र, भक्त-पान तथा क्रोध आदि भावों के परिग्रह के परित्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। व्युत्सर्ग उस व्यक्ति के होता है, जिसके उक्त परिग्रह परित्यक्त होता है। वस्तुएँ बंधन नहीं होतीं। बंधन है आसक्ति। वस्त्र, पात्र, आहार आदि शारीरिक सहायक सामग्री है। अनासक्त दशा में इनका उपयोग होता है तो ये संयमपोषक बन जाती हैं, अन्यथा शरीरपोषक। शरीरपोषण आत्म-धर्म नहीं है। आत्म-धर्म है संयम। संयम की साधना में रत साधक देहाध्यास का परित्याग कर आत्मोपासना में दृढ़ होता है। व्युत्सर्ग की साधना के बिना देहाध्यास, ममत्व और आकर्षण छूटता नहीं।
 
(66) भावनाभाविते चित्ते, ध्यानबीजं प्ररोहति।
संस्काराः परिवर्तन्ते, चिंतनं च विशुद्ध्यति।।
 
जो चित्त भावना से भावित होता है, उसमें ध्यान का बीज अंकुरित होता है, संस्कारों का परिवर्तन होता है और चित्त विशुद्ध बनता है।
 
(67) प्रेक्षया सत्यसंप्रेक्षा, तत्प्राप्तिश्चानुप्रेक्षया।
पुनः पुनस्तदभ्यासाद्, भावना जायते ध्रुवम्।।
 
प्रेक्षा से सत्य का दर्शन होता है। सत्य की उपलब्धि अनुप्रेक्षा अथवा स्वतःसूचना से होती है। अनुप्रेक्षा का बार-बार किया जाने वाला अभ्यास भावना बन जाता है। प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा दो शब्द हैं। प्रेक्षा प्रथम है और अनुप्रेक्षा है उसके बाद होने वाली चिंतनधारा। एक में सत्य का स्पर्श होता है और दूसरे में सत्य की पृष्ठभूमि सुदृढ़ होती है। अनुप्रेक्षा का अभ्यास भावना में बदल जाता है। भावना संस्कारों को बदलती हैं, दृढ़बद्ध मिथ्या धारणा को विखंडित करती है, सत्य के साक्षात्कार में उसकी अहं भूमिका होती है। चित्त को विशुद्ध बनाती है। आज की भावना कल का साकार दर्शन है। यथार्थ की भावना से भावित चित्त यथार्थ का अनुभव करता है। साधना के क्षेत्र में भावना का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह सकारात्मक सोच का प्रकृष्टतम रूप है, साधक के आंतरिक ऐश्वर्य के प्रकटन में इसकी भूमिका असंदिग्ध है। इसका अवलंबन प्रायः साधकों के लिए अनिवार्य बन जाता है। जाने-अनजाने इस मार्ग से उन्हें चलना ही होता है।
 
(68) अनित्यो नाम संसारः, त्राणाय कोऽपि नो मम।
भवे भ्रमति जीवोऽसौ, एकोऽहं देहतः परः।।
 
(69) अपवित्रमिदं गात्रं, कर्माकर्षणयोग्यता।
निरोधः कर्मणां शक्यो, विच्छेदस्तपसा भवेत्।।
 
(70) धर्मो हि मुक्तिमार्गोऽस्ति, सुकृता लोकपद्धतिः।
दुर्लभा वर्तते बोधिः, एता द्वादशभावनाः।।  (त्रिभिर्विशेषकम्)
 
(1) संसार अनित्य है-यह चिंतन अनित्य भावना है। (2) मेरे लिए कोई शरण नहीं है-यह चिंतन अशरण भावना है। (3) यह जीव संसार में भ्रमण करता है-यह चिंतन भव भावना है। (4) ‘मैं एक हूँ’-यह चिंतन एकत्व भावना है। (5) ‘मैं देह से भिन्न हूँ’-यह चिंतन अन्यत्व भावना है। (6) शरीर अपवित्र है-यह चिंतन अशौच भावना है। (7) आत्मा में कर्मों को आकृष्ट करने की योग्यता है-यह चिंतन आस्रव भावना है। (8) कर्मों का निरोध किया जा सकता है-यह चिंतन तप भावना है। (10) मुक्ति का मार्ग धर्म है-यह चिंतन धर्म भावना है। (11) लोक पुरुषाकृति वाला है-यह चिंतन लोक भावना है। (12) बोधि दुर्लभ है-यह चिंतन बोधि दुर्लभ भावना है। ये बारह भावनाएँ हैं।
 
(71) मैत्री सर्वत्र सौहार्दं, प्रमोदो गुणिषु स्फुरेत्।
करुणा कर्मणात्तेषु, माध्यस्थ्यं प्रतिगामिसु।।
 
(1) सब जीव मेरे सुहृद् हैं-यह चिंतन मैत्री भावना है। (2) गुणी व्यक्तियों के प्रति अनुराग होना प्रमोद भावना है। (3) कर्मों से आर्त्त बने हुए जीव दुःख से मुक्त बनें-यह चिंतन करुणा भावना है। 
(4) प्रतिकूल अथवा विपरीत वृत्ति वाले व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा रखना-यह माध्यस्थ भावना है।
 
(72) संस्काराः स्थिरतां यान्ति, चित्तं प्रसादमृच्छति।
वर्धते समभावोऽपि, भावनाभिर्ध्रुवं नृणाम्।।
 
इन भावनाओं से संस्कार स्थिर बनते हैं, चित्त प्रसन्न होता है और समभाव की वृद्धि होती है।
 
(73) भावनाभिर्विमूढाभिः, भावितं मूढतां व्रजेत्।
चित्तं ताभिरमूढाभिः, भावितं मुक्तिमर्हति।।
 
मोहयुक्त भावनाओं से भावित चित्त मूढ बनता है और मोह-रहित भावनाओं से भावित होकर वह मुक्ति को प्राप्त होता है।
 
(74) आत्मोपलब्ध्यै जीवानां, भावनालम्बनं महत्।
तेन नित्यं प्रकुर्वीत, भावनाभावितं मनः।।
 
आत्म-स्वरूप की उपलब्धि के लिए भावना महान् आलंबन है, इसलिए मन को सदा भावनाओं से भावित करना चाहिए।
 
(75) भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव विद्यते।
नौकेव तीरसंपन्नः, सर्वदुःखाद् विमुच्यते।।
 
भावनायोग-अनित्य आदि भावनाओं से जिसकी आत्मा शुद्ध होती है, वह जल में नाव की भाँति होती है। जैसे नाव किनारे पर पहुँचती है, वैसे ही वह दुखों का पार पा जाता है, मुक्त हो जाता है।
 
(76) भवेदास्रविणी नौका, न सा पारस्य गामिनी।
या निरास्रविणी नौका, सा तु पारस्य गामिनी।।
 
जो नाव आस्रविणी है-छेद वाली है, वह समुद्र के पार नहीं पहुँचती और जो निरास्रविणी है-छेद रहित है, वह समुद्र के उस पार चली जाती है। भावना-भावना का एक अर्थ होता है-वासना या संस्कार। मनुष्य का जीवन अनंत जन्मों की वासना का परिणाम है। व्यक्ति जैसी भावना रखता है वह वैसा ही बन जाता है। मनुष्य जो कुछ कर रहा है-वह सब भावना का पुनरावर्तन है। साधना का अर्थ है-एक नया संकल्प या सत्य की दिशा में अभिनव भावना का अभ्यास, जिससे आत्म-विमुख भावना के मंदिर को तोड़कर आत्माभिमुखी भावना द्वारा नए भवन का निर्माण करना। किंतु यह एक दूसरी अति न हो जाए, जिसमें व्यक्ति अन्य भावना द्वारा पहले की तरह संमोहित हो जाए। इसलिए भावना का दूसरा अर्थ है-जिस भावना से अपने को संस्कारी बना रहे हैं, ध्यान द्वारा उसे प्रत्यक्ष अनुभव करना। यदि केवल संकल्प को दोहराते चले जाएँ तो फिर वह सम्मोहन हो जाएगा। एक टूटेगी, दूसरी निर्मित होगी। किंतु अनुभूति नहीं होगी।
अमेरिका के राष्ट्रपति लिंकन की जन्म-शताब्दी मनाई जाने वाली थी। लिंकन से मिलते-जुलते व्यक्ति को उसकी भूमिका निभाने के लिए चुना गया। उसने वर्ष भर यात्रा की। लिंकन का पार्ट अदा किया। वह संस्कार इतना सघन हो गया कि वह अपने आपको लिंकन समझने लगा। वर्ष पूरा हो गया, किंतु उसका सपना नहीं टूटा। लोगों ने बहुत समझाया कि तुम लिंकन नहीं हो। लेकिन वह किसी तरह इसको स्वीकार करने के लिए राजी नहीं हुआ। कुछ लोगों ने कहा, जैसे लिंकन को गोली मारी वैसे ही इसको भी गोली मार दो। अंततोगत्वा एक मशीन का निर्माण किया गया, जो असल को प्रकट कर सके। अनेक परीक्षण सफल हुए। किंतु वह मशीन पर खड़ा हुआ। उसने सोचा, सब कहते हैं-तू लिंकन नहीं है, कह दूँ और उससे पीछा छुड़ा लूँ। वह बोला-मैं लिंकन नहीं हूँ, किंतु मशीन ने बताया कि तू लिंकन है, वह फेल हो गई। भावना का इतना गहरा असर हुआ कि लिंकन न होते हुए भी लिंकनाभास अवचेतन मन में पेठ गया। इसलिए यह अपेक्षित है कि साधक भावना के साथ-साथ सच्चाई के दर्शन से पराङ्मुख न हो। वह ध्यान के अभ्यास के साथ-साथ भावना का अनुशीलन करता रहे।
महावीर ने भावना को नौका कहा है। जैसे नाव से समुद्री यात्रा सानंद संपन्न होती है, वैसे ही भावना रूपी नौका से चित्त को साध्य के अनुरूप सुवासित कर भव-सागर को पार किया जा सकता है। सूफी संतों ने एक सुझाव साधकों को दिया है कि जो भी दिखाई पड़े, उसे परमात्मा मानकर चलना। अनुभव हो तब भी और कल्पना करनी पड़े तब भी। क्योंकि वह कल्पना एक दिन सिद्ध होगी। जिस दिन सिद्ध होगी, उस दिन किसी से क्षमा नहीं माँगनी पड़ेगीं’ इसमें भावना और अनुभूति-दोनों का स्पष्ट दर्शन है।
 
(क्रमशः)