आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

ध्यान-साधना और गुरु

जहाँ तक बाह्य उपलब्धियों का प्रश्‍न है, लोग गुरु के प्रति अनादर के भाव भी व्यक्‍त कर देते हैं। क्योंकि वे दूसरे रास्ते से भी प्राप्त हो सकती हैं। किंतु अंतर्विद्या, जिस पर केवल गुरु का ही अधिकार है, वह किसी दूसरे रास्ते से नहीं पाई जा सकती। उसकी प्राप्ति के लिए साधक एकमात्र गुरु को ही आलंबन मानता है तथा पूर्ण विनम्रता और समर्पण के साथ उनका मार्गदर्शन प्राप्त करता है।
गुरु के मार्गदर्शन से आगे बढ़ने वाला साधक उत्तरोत्तर गति करता रहता है। जहाँ कहीं उसके मार्ग में अवरोध आता है, वह दूर हो जाता है और साधक बिना थके चलता रहता है। सम्यक् पथदर्शन के अभाव में दिग्भ्रम होने की संभावना बनी रहती है। कुछ लोग पुस्तकें पढ़कर या किसी से सुनकर साधना का प्रारंभ करते हैं। वे व्यक्‍ति या तो पाँच-दस दिन में ही ऊबकर साधना का क्रम तोड़ देते हैं अथवा भटक जाते हैं। भटकने के बाद उनका चित्त विक्षिप्त-सा हो जाता है। विक्षिप्तता के साथ साधना का कोई तालमेल नहीं बैठता। ऐसी स्थिति में व्यक्‍ति अपने प्रति और अपनी स्वीकृत साधना के प्रति अनास्थावान हो बैठता है। उसकी अनास्था उसके परिपार्श्‍व में भी अनास्था की तरंगें विकीर्ण कर देती हैं, जिसका अवांछित प्रभाव किसी भी अपरिपक्व साधक पर हो सकता है। इस द‍ृष्टि से साधना के क्षेत्र में गति करने के लिए सुयोग्य गुरु का पथदर्शन बहुत जरूरी है।
प्रश्‍न : साधना के लिए अपने सुयोग्य गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक बताया है। यह मार्गदर्शन निश्‍चित रूप से अच्छा परिणाम ला सकता है। पर गुरु की योग्यता का मानदंड क्या हो? हमारे पास ऐसी कौन-सी कसौटी हो सकती है, जिस पर हम सुयोग्य गुरु की परख कर सकें?
उत्तर : गुरु की कोई एक निश्‍चित परिभाषा नहीं की जा सकती। फिर भी व्यवहार की भूमिका पर चलने वाला व्यक्‍ति परिभाषा जानना चाहता है। क्योंकि असीम आकाश को मकान की सीमा में बाँधे बिना वह रहने के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। गुरु की गरिमा को अभिव्यक्‍ति देने के लिए शब्द सक्षम नहीं, इसलिए उसे व्यवहार के धरातल पर ही परिभाषित किया जा सकता है। व्यवहार के स्तर पर गुरु वह होता है, जो महाव्रती हो। जिसकी आत्मा महाव्रतों की सम्यक् आराधना से भावित नहीं है, वह ध्यान की साधना में निष्णात नहीं हो सकता। महाव्रती होने के साथ उसकी ध्यान साधना में रुचि भी होनी चाहिए। क्योंकि रुचि के अभाव में वह न तो ध्यान के प्रयोग कर सकता है और न दूसरों को करा सकता है।
ध्यान-प्रशिक्षण के लिए कषाय-विजय की साधना भी बहुत आवश्यक है। कषाय-विजय का फलित हैक्षांति, मुक्‍ति, ॠजुता और मृदुता। क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाला शांत होता है। लोभ पर विजय पाने वाला मुक्‍त-निर्लोभ होता है। माया को पराजित कर देने वाला ॠजु होता है। और मान को निरस्त करने वाला मृदु बनता है। ‘कषायमुक्‍ति किल मुक्‍तिरेव’इस सूक्‍त का रहस्य यही है कि मुक्‍त होने के लिए कषाय-विजय की साधना करो।
स्थानांग सूत्र में धर्म के चार द्वार बताए हैंक्षांति, मुक्‍ति, आर्जव और मार्दव। ये चार धर्मद्वार ही मोक्षद्वार हैं। इनमें प्रवेश पाए बिना साधना नहीं हो सकती। क्योंकि अपनी ध्यान-साधना का मुख्य प्रयोजन कषाय-मुक्‍ति ही है। जो साधक इसमें परिपक्व नहीं होता, वह किसी अन्य व्यक्‍ति को ध्यान की दीक्षा दे ही नहीं सकता क्योंकि यह सारी साधना वीतरागता की साधना है। इस साधना से संपन्‍न व्यक्‍ति ही गुरु के गरिमापूर्ण पद को अलंकृत कर सकता है।
केवल प्राण की साधना करने वाले साधक भी ध्यान के गुरु बनते हैं। उनके पास ध्यान के तत्त्व मिल सकते हैं। पर वे ऐहिक सिद्धियों और चमत्कार-प्रदर्शन की सीमा तक ही आगे बढ़ पाते हैं। अध्यातम-साधना क्षांति, मुक्‍ति आदि की साधना के बिना सफल नहीं हो सकती। इसके बिना अध्यात्म के द्वार में प्रवेश भी नहीं हो सकता।
चमत्कार भी एक सिद्धि है। चमत्कार का प्रदर्शन करने वाला व्यक्‍ति अनेक व्यक्‍तियों को आश्‍चर्यचकित बना सकता है। पर यह व्यक्‍तित्व के रूपांतरण की प्रक्रिया नहीं है। इससे व्यक्‍ति अंतर्मुखी नहीं बन पाता। अंतर्मुखता या व्यक्‍तित्व परिवर्तन के लिए तो चामत्कारिक प्रदर्शनों से दूर रहकर कषाय-मुक्‍ति या वीतरागता की ही साधना करनी होगी।
गुरु की एक परिभाषा हो सकती हैप्रेक्षा-योग की पारगामिता। जो प्रेक्षाध्यान की साधना कर चुका है, इस विषय में निष्णात हो चुका है, और पूर्ण धृति का विकास कर चुका है, वह भी गुरु का दायित्व वहन कर सकता है। दायित्व निर्वाह के लिए गुरु का कुशल परिज्ञावान होना नितांत अपेक्षित है।
परिज्ञा दो प्रकार की होती हैज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा। यहाँ परिज्ञा शब्द का प्रयोग व्यापक संदर्भ में हुआ है। जो व्यक्‍ति जानने, बदलने और छोड़ने की क्षमता रखता हो, वही परिज्ञावान हो सकता है और जिस व्यक्‍ति की परिज्ञा-चेतना, जागृत हो जाती है, वह व्यक्‍ति गुरु बन सकता है।
सुयोग्य गुरु, जिज्ञासु शिष्य और साधना की समुचित सामग्री का उपयुक्‍त योग मिलने से कोई भी साधक साधना के मार्ग में अच्छी गति कर सकता है।
(क्रमश:)