धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

अमूर्त का साक्षात्कार

संस्कृत भाषा का एक श्लोक है-

रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं ततत्त्वं नेतरो जनः।।

प्रश्न हुआ-‘आत्म’ तत्त्व का साक्षात्कार कौन कर सकता है? उत्तर को भाषा में कहा गया-जिस व्यक्ति का मनरूपी जल राग-द्वेष आदि की तरंगों से तरंगित नहीं होता है, जो राग द्वेषमुक्त बन जाता है, वही व्यक्ति आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है।
एक युवक संन्यासी बना। काफी समय जंगल में बिता चुकने के बाद भी आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ तो उसकी आध्यात्मिक आस्था टूट गई। वह पुनः गार्हस्थ की ओर लौटने के लिए आतुर हो उठा। एक दिन पार्श्ववर्ती गाँव में भिक्षा के लिए गया। वहाँ एक दुकान थी, जिसमें उसका बालसखा दुकानदारी कर रहा था। वह दुकान में गया। मित्र ने अभ्यागत का स्वागत किया। आगंतुक संन्यासी ने अनेक पीपों को लंबी-लंबी कतारों में सजाए हुए देखा तो प्रश्न उठा कि इनमें है क्या? जिज्ञासा दुकानदार के सामने रखी तो उसने एक-एक पीपे का परिचय देना शुरू किया-इसमें नमक है, इसमें मिर्च है, इसमें धनिया है, इसमें तैल है। यों कतारों में स्थित सारे पीपों का परिचय पा लेने के बाद संन्यासी ने एक कोने में स्थित दो पीपों के बारे में पूछा-उनमें क्या है? दुकानदार ने सस्मय कहा-उनमें राम-राम है। संन्यासी की जिज्ञासा आगे बढ़ी राम-राम को जानने के लिए। ‘राम-राम’ भी किसी वस्तु का नाम है क्या मित्र?
नहीं महाराज! आप तो हमारी चालू भाषा से भी अनजान हैं। जिसमें कुछ नहीं होता है, जो खाली होता है, उसके लिए हम इस प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग करते हैं कि इसमें राम-राम है। ‘राम-राम’ की इस अति संक्षिप्त और सारभूत परिभाषा एवं व्याख्या ने संन्यासी के मन को बदल दिया। वह सोचने लगा, प्रेक्षा करने लगा-राम वहाँ होता है, जो खाली होता है। जो पीपे नमक, मिर्च आदि से भरे हुए थे, उनके लिए ‘राम-राम’ नहीं कहा गया, उनमें निहित वस्तुओं के नाम से उनका परिचय कराया गया। जो खाली थे, उनमें ‘राम-राम’ बतलाया गया।
क्या मेरा मन खाली हुआ है? इतने वर्ष जंगल में बिताए, परंतु मन को मैंने खाली कहाँ किया? मेरा मन उन पीपों की भाँति है जिनमें मिर्च, नमक आदि हैं, उन दो पीपों की भाँति नहीं है जो खाली हैं, रिक्त हैं, जिनमें अवकाश हैं। मुझे यदि राम (आत्मा) का दर्शन करना है तो अपने आपको क्रोध, मान, माया व लोभ से खाली करना होगा। संन्यासी ने वैसा अभ्यास किया, अपने आपको कषाय से रिक्त किया और अध्यात्म के भावों से अभिषिक्त किया। समय आया और आत्मा, जो कि अमूर्त तत्त्व है, का उसे साक्षात्कार हो गया।
संसार में मूलभूत तत्त्व दो ही हैं-जीव और अजीव। बाकी के तत्त्व, जो विभिन्न नामों से जाने-पहचाने जाते हैं, इन्हीं की अवस्थाएँ या विस्तार हैं। जैन दर्शन में नव तत्त्व और पंचास्तिकाय अथवा षड्द्रव्य प्रसिद्ध हैं। नौ तत्त्व हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष। प×चास्तिकाय (पाँच अस्तिकाय) हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। इनके साथ ‘काल’ द्रव्य को जोड़ देने से षड्द्रव्य (छः द्रव्य) हो जाते हैं।
नौ तत्त्वों के स्थान पर तत्त्वार्थसूत्र में सात ही तत्त्व उल्लिखित हैं। यहाँ पुण्य और पाप का स्वतंत्र रूप में नामोल्लेख नहीं है। यह एक विवक्षा है। पुण्य, पाप को बंध अथवा आश्रव के अंतर्गत भी माना गया है। ये सभी वर्गीकरण भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों और विवक्षाओं से निष्पन्न हुए हैं। इन सभी का मूल उद्गम तत्त्वद्वयी-जीव और अजीव है। इसलिए नौ तत्त्वों का छः द्रव्यों में और छः द्रव्यों का नौ तत्त्वों में समवतार किया जा सकता है। फिर प्रश्न यह उठता है कि दोनों का एक-दूसरे में समावेश हो सकता है तो संख्याभेद, शब्दावली भेद और म्या का अर्थभेद किस आधार पर किया गया है? इस संदर्भ में विमर्श करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि छः द्रव्य विश्वविद्या के संदर्भ में विकसित हुए हैं। यह विशव क्या है? इसका स्वरूप क्या है? इसके घटक तत्त्व कौन-कौन से हैं? इन प्रश्नों का उत्तर हमें छः द्रव्यों के वर्गीकरण के माध्यम से दिया गया है। आत्म-कल्याण के लिए कौन-कौन से तत्त्वों को समझना है? कितना प्रयोग करना है, उपयोग करना है और किनसे अपने आपको बचाना है, दूर रखना है? इन प्रश्नों का उत्तर हमें नव तत्त्वों के माध्यम से दिया गया है। यानी छः द्रव्य अस्तित्ववाद के परिप्रेक्ष्य में हैं और नौ तत्त्व आध्यात्मिक उपयोगितावाद के संदर्भ में हैं।
(क्रमशः)