संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
बारह भावनाएँ
(7-8) आस्रव-संवर भावना-आस्रव क्रिया है, प्रवृत्ति है और संवर अप्रवृत्ति तथा अक्रिया है। आस्रव में विजातीय तत्त्व का संग्रह होता है और उससे भव-भ्रमण होता है। संवर विजातीय का अवरोधक है और संगृहीत जो है, उसका रेचन करता है, उसे बाहर फेंकता है निर्जरा तत्त्व प्रवृत्ति और निवृत्ति की चर्चा अन्यत्र की जा चुकी है।

(9) तपोभावना-योग और ध्यान प्रकरण के अंतर्गत तप का विस्तृत वर्णन किया जा चुका है।

(10) धर्म भावना-धर्म का अर्थ है स्वभाव और वे साधन जिनसे व्यक्ति स्वयं में प्रतिष्ठित होता है। धर्म को त्राण, द्वीप, प्रतिष्ठा और गति कहा है। व्यक्ति जब धर्म को जान लेता है, उससे सम्यक् परिचित हो जाता है तब उसके लिए जो कुछ है वह सब धर्म ही है।
एक संत का कंबल चोरी में चला गया। उसने रिपोर्ट लिखाई कि मेरा बिछौना, सिरहाना, रजाई, कंबल चोरी में चला गया। एक दिन चोर पकड़ा गया। कंबल भी उसके पास था। थानेदार ने पूछा यह किसका है? कहा-‘संत का है।’ पूछा-‘और क्या-क्या चीजें वहाँ से लाया?’ कहा-‘कुछ भी नहीं, बस यही कंबल।’ संत को बुलाया और पूछा-‘क्या यही है आपका कंबल?’ कहा-‘हाँ।’ थानेदार ने कहा-‘चोर कहता है आपकी रिपोर्ट झूठी है। इसके सिवाय वहाँ कुछ था ही नहीं। फिर आपने इतनी चीजें कैसे लिखाई।’ संत ने हँसते हुए कहा-‘यही तो सब कुछ है। सर्दी में ओढ़ लेता हूँ, गर्मी में बिछा लेता हूँ, सिरहाने भी दे लेता हूँ।’ धर्म जब सब कुछ हो जाता है तभी धर्म की सुगंध आ सकती है।
धर्म का संबंध बाह्य पदार्थ-जगत् से नहीं, वह आत्मा का गुण है और उससे वही मिलना चाहिए, जो कि उसके द्वारा प्राप्य है। धर्म से अन्य उपलब्धियों की चर्चा केवल रोते हुए बच्चे को खिलौना देकर चुप करने जैसी है। वे उसका स्वभाव नहीं है। विभाव से स्वभाव की उपलब्धि आकाश-कुसुम जैसी है। धर्म ज्ञान-दर्शन-चारित्र है। धर्म निज का उदात्त, शुद्ध, आनंदमय स्वरूप है। उस धर्म का अनुचिंतन कर, उसकी शरण में स्वयं को छोड़ कर साधक अंतःस्थित महान् साथी (स्वयं) को प्राप्त कर लेता है।
सुकरात को जहर दिया जा रहा था। किसी ने कहा-‘यदि आप बोलना बंद कर दें तो सजा माफ की जा सकती है।’ सुकरात रूढ़ियों के विरुद्ध और धर्म के यथार्थ स्वरूप की चर्चा करते थे। परंपरा के विरुद्ध बोलना लोगों को कैसे सहन हो सकता था? सुकरात ने कहा- ‘जीवन को देख लिया, अब मृत्यु को भी देख लूँगा। किंतु बोलना कैसे रुक सकता है? मेरा होना ही सत्य के लिए है। मैं और सत्य भिन्न नहीं हैं। मेरे होने का अर्थ है-सत्य का उद्घाटन। इसलिए विष बड़ी चीज नहीं है, सत्य बड़ा है।’ सुकरात को जहर दे दिया गया और वे अपनी मृत्यु की घटना को देखते-देखते विदा हो गए। अपने स्वरूप का परिचय करना धर्म भावना है।

(11) लोक भावना-संपूर्ण विश्व, जो पुरुषाकृति है, का चिंतन करना लोक भावना है। जड़ और चेतन का यह आवास-स्थल है। मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, सूर्य, चंद्र, नारक, देव और मुक्तात्मा (सिद्धि-स्थान)-ये सब लोक की सीमा के अंतर्गत हैं। साधक लोक की विविधता का दर्शन कर और उसके हेतुओं का विचार कर अपने अंतःस्थित चेतना (आत्मा) का ध्यान करें। वह सोचे-राग और द्वेष की उठने वाली तरंगों का यह परिणाम है। लोक-भावना का अभिप्राय है-इस वैविध्य और वैचित्र्य का सम्यग् अवलोकन कर स्वयं को सतत तटस्थ बनाए रखना।

(क्रमशः)