श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

जीवनवृत्त: कुछ चित्र, कुछ रेखाएँ

कुमारश्रमण केशी भगवान् पार्श्व के और श्रमण गौतम भगवान् महावीर के शिष्य थे। भगवान् महावीर अस्तित्व में आए ही थे। उनका धर्म-चक्र अभी प्रवृत्त हुआ ही था। अभी सूर्य की रश्मियाँ दूर तक फैली नहीं थी। केशी यह अनुभव कर रहे थे कि अंधकार और अधिक घना हो रहा है। श्रमण परंपरा के आकाश में ऐसा कोई सूर्य नहीं है जो इस अंधकार को प्रकाश में बदल दे। गौतम से उनकी भेंट हुई तब उन्होंने अपनी मानसिक अनुभूति गौतम के सामने रखी। वे वेदना के स्वर में बोले, ‘आज बहुत बड़ा जन-समूह घोर तपोमय अंधकार में स्थित हो रहा है। उसे प्रकाश देने वाला कौन होगा?’
गौतम ने कहा, ‘भंते! लोक को अपने प्रकाश से भरने वाला सूर्य अब उदित हो चुका है। वह जन-समूह को अंधकार से प्रकाश में ले आएगा।’
गौतम के उत्तर से केशी को आश्वासन जैसा मिला। उन्होंने विस्मय की भाषा में पूछा, ‘वह सूर्य कौन है?’
‘वह सूर्य भगवान् महावीर हैं।’
‘कौन है वह महावीर?’
‘प्रारंभ में विदेह जनपद का राजकुमार और आज विदेह-साधना का ‘समर्थ साधक, महान् अर्हत् जिन और केवली।’
संक्षिप्त उत्तर से केशी की जिज्ञासा शांत नहीं हुई। तब गौतम ने भगवान् महावीर के जीवनवृत्त के अनेक चित्र केशी के सामने प्रस्तुत किए।
स्वप्न
निरभ्र नील गगन। शांत, नीरव वातावरण। रात्रि का पश्चिम प्रहर। महाराज सिद्धार्थ का भव्य प्रासाद। वासगृह का मध्य भाग। सुरभि पुष्प और सुरभि चूर्ण की महक। मृदु-शय्या। अर्द्धनिद्रावस्था में सुप्त देवी त्रिशला ने एक स्वप्न-शंृखला देखी।
देवी ने देखा-
एक हाथी-बरसे हुए बादल जैसा श्वेत, मुक्ताहार जैसा उज्ज्वल, क्षीर समुद्र जैसा धवल, चंद्ररश्मि जैसा कांत, जलबिंदु जैसा निर्मल और रजत पर्वत जैसा शुभ्र। चतुर्दन्त, उन्नत और विशाल।
एक वृषभ-श्वेत कमल की पंखुलिड़यों जैसा श्वेत और विराट् स्कंध।
एक सिंह-तृप्त स्वर्ण और विद्युत् जैसी चमकदार आँखें और सौम्य आकृति।
लक्ष्मी-कमलासन पर आसीन। दिग्गजों की विशाल-पीवर सूंड से अभिषिक्त।
एक पुष्पमाला-मंदार के ताजा फूलों से गुंथी हुई। सर्व ऋतुओं में विकस्वर। श्वेत पुष्पों के मध्य यत्र-तत्र बहुरंगी पुष्पों से गुंफित।
चाँद-गोक्षीर, फेन और रजतकलश जैसा शुभ्र। समुद्र की वेला का संवर्धक, स्वच्छ दर्पण तुल्य चमकदार, हृदयहारी, मनोहारी, सौम्य और रमणीय।
सूर्य-अंधकार को विनष्ट करने वाला, तेजपुंज से प्रज्वलित। रक्तअशोक, किंशुक, शुकमुख और गुंजार्ध जैसा रक्त।
एक ध्वजा-कनकयष्टि पर प्रतिष्ठित। ऊर्ध्वभाग में सिंह से अंकित। मंद-मंद पवन से लहराती हुई।
एक कलश-कमलावधि से परिवेष्टित और जल से परिपूर्ण।
मीन युगल-पारदर्शी शरीर, मन को लुभाने वाली मृदुता और चपलता का मूर्तरूप।
एक पद्म सरोवर-सूर्यविकासी, चंद्रविकासी और जात्य कमलों से परिपूर्ण। सूर्य-रश्मियों से प्रबुद्ध कमलों की सुरभि से सुसंगधित।
एक सिंहासन-पराक्रम के प्रतिनिधि वनराज के मुख से मंडित, रत्नमणि जटित और विशाल।
क्षीर सागर-नाचती हुई लहरियों से क्षुब्ध। पवन-प्रकंपित तरंगों से तरंगित। विशाल और गंभीर।
एक देव विमान-नवोदित सूर्य बिम्ब जैसा प्रभास्वर। अगर और लोवान की गंध से सुरक्षित।
एक नाग विमान-ऐश्वर्य का प्रतीक, कमनीय और रमणीय।
एक रत्नपुंज-दिगंत को छूती हुई रश्मियों से आकीर्ण, उन्नत और रमणीय।
एक अग्निपुंज-गगनस्पर्शी शिखा और ज्वाला से संकुल, निर्धूम ओर घृत से अभिशिक्त।
त्रिशला जागी। उसका मन उल्लास से भर गया। उसे अपने स्वप्नों पर आश्चर्य हो रहा था। आज तक उसने इतने महत्त्वपूर्ण स्वप्न कभी नहीं देखे थे। वह महाराज सिद्धार्थ के पास गई। उन्हें स्वप्नों की बात सुनाई। सिद्धार्थ हर्ष और विस्मय से आरक्त हो गया।
सिद्धार्थ ने स्वप्न-पाठकों को आमंत्रित किया। उन्होंने स्वप्नों का अध्ययन कर कहा, ‘महाराज! देवी के पुत्र-रत्न होगा। ये स्वप्न उसके धर्म-चक्रवर्ती होने की सूचना दे रहे हैं।’ महाराज ने प्रतिदान दे स्वप्न-पाठकों को विदा किया।’ (क्रमशः)