अहिंसा को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है समता : आचार्यश्री महाश्रमण
ठाणा, 16 जनवरी, 2024
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी आज पंच दिवसीय प्रवास हेतु ठाणा पधारे। मंगल पुरुष आचार्यप्रवर ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी के भीतर अहिंसा की वृत्ति भी होती है, तो हिंसा की वृत्ति भी आदमी की चेतना में हो सकती है। हिंसा और अहिंसा दोनों आदमी के जीवन में देखी जा सकती है। हिंसा का अभाव अहिंसा है। हिंसा की पृष्ठभूमि में राग या द्वेष की वृत्ति काम करती है। जीवन व्यवहार में हिंसा-अहिंसा को देखा जा सकता है। हिंसा-अहिंसा के भाव मनुष्य के मन में रहते हैं। हिंसा के पीछे परिग्रह का भी हाथ होता है। अपरिग्रह परम धर्म होता है। परिग्रह या लोभ के कारण व्यक्ति हिंसा में प्रवृत्त हो सकता है।
भूखमरी, गरीबी और बेरोजगारी भी हिंसा में योगभूत बन सकती है। जब व्यक्ति अभावग्रस्त होता है तब वह अभाव से छुटकारा पाने का रास्ता खोजता है, पर अनुकूल रास्ता नहीं मिलने पर वह हिंसा का रास्ता भी चुल लेता है। इस प्रकार बाहरी परिस्थितियाँ भी हिंसा में निमित्त बन सकती हैं। मूल तो भीतर में कषाय हैं तब ये निमित्त हिंसा को जन्म देते हैं। कहा गया हैµआत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है। जो अप्रमत्त होता है वह अहिंसक होता है, जो प्रमत्त होता है वह हिंसक होता है। प्रभु या परमात्मा से प्रेम करें, उनकी भक्ति करें, यह तो अच्छी बात है पर यह भी ध्यान दें कि परिवार में, पड़ोसी से मैत्री है या नहीं? हम प्राणी मात्र के प्रति मैत्री रखें, उनमें भी अपने आस-पास रहने वालों के साथ मैत्री रखें।
दुःख हिंसा से प्रसूत होते हैं। शास्त्र में अहिंसा को भगवती कहा गया है। सब जीवों का कल्याण करने वाली यह अहिंसा भगवती माता है, जीवनदाता है। अहिंसा को सुरक्षित रखने के लिए समता आवश्यक है। अहिंसा एक ऐसा मार्ग है जो मोक्ष तक पहुँचा सकता है। पातंजल योग दर्शन में कहा गया है कि जिस व्यक्ति के भीतर अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाती है उसकी सन्निधि पाकर दूसरे व्यक्ति का भी वैर-भाव नष्ट हो जाता है। अहिंसा की बात हमारे जीवन में रहे। हम हमारे साध्य-मोक्ष को पाने के लिए अहिंसा रूपी शुद्ध साधना का उपयोग करें, अहिंसा के राजमार्ग पर चलने का प्रयास रखें।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि आचार्यप्रवर अपने प्रवचन में लोगों को ऐसा अमृत प्रदान करा रहे हैं, जिस अमृत को पाकर लोगों को जीवन जीने के सूत्र प्राप्त हो रहे हैं। भारतीय संस्कृति में उस जीवन को जीवन कहा जाता है, वह जीवन सुफल-सफल और सार्थक होता है, जिसमें व्यक्ति शांति का अनुभव करता है। बाह्य पदार्थों से अस्थायी शांति मिलती है। जब व्यक्ति भीतर चला जाता है, उस समय वह जो शांति प्राप्त करता है, उसका वह चिंतन भी नहीं कर सकता है।
पूज्यप्रवर के स्वागत में स्थानीय स्वागताध्यक्ष महेंद्र बागरेचा, तेममं ठाणा, स्थानीय विधायक निरंजन डावखेरे स्थानीय सभाध्यक्ष रमेश सोनी, रेयमंड कंपनी के संयोजक व स्थानकवासी समाज से शांतिलाल पोखरना, मूर्तिपूजक समाज से उत्तमचंद सोलंकी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।