उपासना
(भाग - एक)
आचार्य महाश्रमण
आचार्य जंबू
अभिनिष्क्रमण और दीक्षा
प्रभात के समय विशाल जनसमूह के साथ वैरागी जंबू का मुनि-दीक्षा स्वीकार करने के लिए घर से अभिनिष्क्रमण हुआ।
आचार्य सुधर्मा के द्वारा श्रेष्ठीकुमार जंबू ने पाँच सौ सत्ताईस व्यक्तियों के साथ वी0नि0 1 वि0पू0 469 में राजगृह के गुणशीलचैत्य में मुनि-दीक्षा ग्रहण की।
मुनि जीवन में जंबू
मुनि जंबू कुशाग्र बुद्धि के स्वामी थे। वे अपनी सर्वग्राही एवं सद्य:ग्राही प्रतिभा के द्वारा आचार्य सुधर्मा के अगाध ज्ञानसिंधु को अगस्त्य ॠषि की तरह पी गए।
आगम की अधिकांश रचनाएँ जंबू के प्रिय संबोधन से प्रारंभ हुई। ‘जंबू! सर्वज्ञ श्री वीतराग भगवान् महावीर से मैंने ऐसा सुना है।’ आचार्य सुधर्मा का यह वाक्य आगम-साहित्य में अत्यंत विश्रुत है।
समग्र सूत्रार्थ ज्ञाता, विश्रुत कीर्ति, विविधि गुणों के धारक जंबू को आचार्य सुधर्मा ने अपने पद पर आरूढ़ किया। आचार्य पद ग्रहण के समय जंबू की अवस्था छत्तीस वर्ष की थी। आचार्य पद ग्रहण का समय वी0नि0 20 (वि0पू0 450) माना गया है।
अंतिम केवली
वी0नि 20 (वि0पू0 450) में श्रमण सहांशु आचार्य सुधर्मा का निर्वाण और आचार्य जंबू को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तीर्थंकर महावीर के बाद केवली-परंपरा में जंबू तृतीय केवलज्ञानी बने। जंबू का आचार्य पद ग्रहण और केवलज्ञान-प्राप्ति के प्रसंग का संवत् समय एक ही है।
जंबू समर्थ आचार्य थे एवं निर्मल ज्ञानज्योति के देदीप्यमान पुंज
थे। इनके समय तक धर्मसंघ में कोई भेद-रेखा नहीं उभरी थी।
श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपरा सुधर्मा और जंबू को समान रूप
से सम्मान प्रदान करती हैं। इस समय तक विकास का कोई भी द्वार अवरुद्ध नहीं था।
आचार्य जंबू चरमशरीरी थे एवं अंतिम सर्वज्ञ थे।
समय संकेत
आचार्य जंबू सोलह वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। मुनि पर्याय के कुल चौंसठ वर्ष में चौवालीस वर्ष तक उन्होंने युगप्रधान पद को अलंकृत किया। उनकी संपूर्ण आयु अस्सी वर्ष की थी। जन-जन को ज्ञान-रश्मियों से आलोकित कर ज्योतिपुंज आचार्य जंबू वी0नि0 64 (वि0पू0 406) में निर्वाण पद को प्राप्त हुए।
दिगंबर एवं श्वेतांबरदोनों परंपराओं के अभिमत से ज्योतिपुंज जंबू अंतिम मुक्तिगामी रहे हैं।
(क्रमश:)