श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

जीवनवृत्त: कुछ चित्र, कुछ रेखाएँ

जन्म

सब दिशाएँ सौम्य और आलोक से पूर्ण हैं। वासंती पवन मंद-मंद गति से प्रवाहित हो रहा है। पुष्पित उपवन वसंत के अस्तित्व की उद्घोषणा कर रहे हैं। जलाशय प्रसन्न हैं। प्रफुल्ल हैं भूमि और आकाश। धान्य की समृद्धि से समूचा जनपद हर्ष-विभोर हो उठा है। इस प्रसन्न वातावरण में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्यरात्रि को एक शिशु ने जन्म लिया। यह विक्रम पूर्व 542 और ईसा पूर्व 599 की घटना है। जनपद का नाम विदेह। नगर का नाम क्षत्रियकुंड। पिता का नाम सिद्धार्थ। माता का नाम त्रिशला। शिशु अभी अनाम। वह दासप्रथा का युग था। प्रियंवदा दासी ने सिद्धार्थ को पुत्र-जन्म की सूचना दी। सिद्धार्थ यह सूचना पा हर्ष-विभोर हो उठे। उन्होंने प्रियंवदा को प्रीतिदान दिया और सदा के लिए दासी-कर्म से मुक्त कर दिया। दास-प्रथा के उन्मूलन में यह था शिशु का पहला अभियान। सिद्धार्थ ने नगर रक्षक को बुलाकर कहा, ‘देवानुप्रिय! पुत्ररत्न का जन्म हुआ है। उसकी खुशी में उत्सव का आयोजन करो।’
नगर-रक्षक महाराज सिद्धार्थ की आज्ञा को शिरोधार्य कर चला गया। आज बंदीगृह खाली हो रहे हैं। बंदी अपने-अपने घरों को लौट रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो स्वतंत्रता के सेनानी ने जन्म लेते ही पहला प्रहार उन गृहों पर किया है, जहाँ बुराई को नहीं किंतु मनुष्य को बंदी बनाया जाता है। आज बाजारों में भीड़ उमड़ रही है। अनाज, किराना, घी और तेल-सब सस्ते भावों में बिक रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो असंग्रह के पुरस्कर्ता ने संग्रह को चुनौती दे डाली है। आज नगर के राजपथों, तिराहों, चौराहों और छोटे-बड़े सभी पथों पर जल छिड़का जा रहा है। ऐसा लग रहा है मानो शांति का पुरोधा भूमि का ताप हरण कर मानव-संतान के हरण की सूचना दे रहा है।
आज अट्टालिका के हर शिखर पर ध्वजा और पताकाएँ फहरा रही हैं। ऐसा लग रहा है मानो जीवन-संग्राम में प्राप्त होने वाली सफलता विजय का उल्लास मना रही है। आज नगर के कण-कण में सुगंध फूट रही है। सारा नगर गंधगुटिका जैसा प्रतीत हो रहा है। मानो वह बता रहा है कि संयम के संवाहक की दिग्दिगंत में ऐसी ही सुगंध फूटेगी। नगरवासियों के मन में कुतूहल है। स्थान-स्थान पर एक प्रश्न पूछा जा रहा हैµआज यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? क्या कोई नई उपलब्धि हुई है। इन जिज्ञासाओं के उभरते स्वरों के बीच राज्याधिकारियों ने समूचे नगर में यह सूचना प्रसारित की, ‘महाराज सिद्धार्थ के आज पुत्र-रत्न का जन्म हुआ है।’ इस संवाद के साथ समूचा नगर हर्षोस्कुल्ल हो गया।
नामकरण
समय की सुई अविराम गति से घूम रही है। उसने हर प्राणी को पल-पल के संचय को सींचा है। गर्भ को जन्म, जन्म-प्राप्त को बालक, बालक को युवा, युवा को प्रौढ़, प्रौढ़ को वृद्ध और वृद्ध को मृत्यु की गोद में सुलाकर वह निष्काम कर्म का जीवित उदाहरण प्रस्तुत कर रही है। उसने त्रिशला के शिशु को बढ़ने का अवसर दिया। वह आज बारह दिन का हो रहा है। वह अभी अनाम है। जो इस दुनिया में आता है, वह अनाम ही आता है। पहली पीढ़ी के लोग पहचान के लिए उसमें नाम आरोपित करते हैं। जीव सूक्ष्म है। उसे पहचाना नहीं जा सकता। उसकी पहचान के दो माध्यम हैंµरूप और नाम। वह रूप को अव्यक्त जगत् से लेकर आता है और नाम व्यक्त जगत् में आने पर आरोपित होता है। माता-पिता ने आगंतुक अतिथियों और संबंधियों से कहा, ‘जिस दिन यह शिशु गर्भ में आया, उसी दिन हमारा राज्य धन-धान्य, सोना-चाँदी, मणि-मुक्ता, कोश-कोष्ठागार, बल-वाहन से बढ़ा है, इसलिए हम चाहते हैं कि इस शिशु का नाम ‘वर्द्धमान’ रखा जाए। हम सोचते हैं, आप इस प्रस्ताव से अवश्य सहमत होंगे। उपस्थित लोगों ने सिद्धार्थ और त्रिशला के प्रस्ताव का एक स्वर से समर्थन किया। शिशु का नाम वर्द्धमान हो गया। ‘वर्द्धमान’, ‘सिद्धार्थ’ और ‘त्रिशला’ के जयघोष के साथ नामकरण संस्कार संपन्न हुआ।

(क्रमशः)