उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य सुहस्ती
आचार्य सुहस्ती के दीक्षागुरु थे आचार्य स्थूलभद्र। तीस वर्ष की अवस्था में संयमी बने। आचार्य महागिरि के पास इनका अध्ययन विशेष रूप से चला। दशपूर्वी आचार्यों में आर्य महागिरि का प्रथम तथा आचार्य सुहस्ती का दूसरा क्रम है।
एक बार आचार्य महागिरि के साथ ही आचार्य सुहस्ती कौशाम्बी में पधारे। उस समय वहाँ भयंकर दुष्काल था। विशाल साधु संघ विभिन्न स्थानों में ठहरा हुआ था। श्रमणों के प्रति श्रावकों की अत्यधिक भक्ति होने से संतों को पर्याप्त रूप में आहार मिल जाता था। एक दिन आचार्य सुहस्ती का एक शिष्य भिक्षार्थ गया। आहार लेकर लौट रहा था उस समय एक रंक भी साधुओं के पीछे हो गया। भूख से बेहाल बने रंक ने साधु से आहार की याचना की। मुनिवर्य ने सीधा-सा उत्तर दे दिया‘हम गुरु की आज्ञा के बिना कोई भी कार्य नहीं करते।’
रंक भूखा था। संतों के पीछे आचार्य सुहस्ती के पास आकर भोजन की याचना की। आचार्य ने ज्ञानबल से देखकर जानाइस रंक से जैनशासन की अधिक प्रभावना होगी। यही सोचकर कहा‘साधुव्रत स्वीकार करने पर ही आहार दिया जा सकता है।’ रंक ने सोचाअन्नाभाव में मरने की अपेक्षा साधुभाव क्या बुरा है? यों सोचकर संयमी बन गया। भूख से बेहाल बने को पर्याप्त भोजन मिल गया। वह क्षुधार्त मात्रा का विवेक न रख सका। अपच के कारण उसी रात्रि में समता की आराधना करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो गया। अव्यक्त साधना के बल पर वह अवन्तिनरेश सम्राट् अशोक का प्रपौत्र तथा कुणाल के पुत्र के रूप में पैदा हुआ। वह संप्रति नाम से पुकारा जाने लगा।
संप्रति राजा बना। आचार्य सुहस्ती को देखकर जातिस्मरण ज्ञान हो गया। आचार्य के चरणों में झुका। आचार्य ने पूर्वजन्म का सारा वृत्त बताया। धर्म का उपदेश सुनकर पूर्ण भक्त बना। जैन धर्म का प्रचारक, प्रवचन प्रभावक तथा सम्यक्त्वी और अणुव्रती बना।
दुष्काल के समय सम्राट् ने अपने प्रजाजनों को श्रमणों को अपेक्षित सुविधा प्रदान करने का संकेत दिया। उन सबका मूल्य स्वयं के यहाँ से चुकाने के लिए भी कह दिया। श्रमणों को यथेप्सित आहार मिलने लगा। कल्प-अकल्प का विवेक छोड़कर साधुगण सुविधावादी बन गए। आर्य महागिरि निर्दोष परंपरा के पक्षपाती थे। यह आचारशैथिल्य उन्हें अखरा। उन्होंने श्रमणों के इस पेटार्थीपन पर प्रखर प्रहार करते हुए आचार्य सुहस्ती का संबंध-विच्छेद कर दिया। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् सांभोगिक संबंध-विच्छेद की घटना संभवत: यह प्रथम ही थी।
आचार्य सुहस्ती महागिरि का बहुत सम्मान करते थे। अत: बहुत-बहुत विनय किया, भविष्य में ऐसी गलती न करने के लिए भी कहा। आचार्य सुहस्ती के अनुनय से प्रभावित होकर आर्य महागिरि ने संबंध-विच्छिन्नता का प्रतिबंध तो हटा लिया पर अपना आहार-व्यवहार उनके साथ नहीं किया।
इतिहास अतीत की ओर नही मुड़ा करता है। आचार्य सुहस्ती तो फिर भी संभले पर श्रमणों में पनपा हुआ सुविधावाद रुक न सका।
आचार्य सुहस्ती के समय में ही गणधर वंश, वाचक वंश और युगप्रधान आचार्य की परंपराएँ प्रारंभ हुईं। गण का दायित्व संभालने वाले गणाचार्य कहलाए, जिनका संबंध अपने गण तक ही रहता। अपने गण और अन्य गणों को वाचना देने वाले वाचनाचार्य कहलाए, जो आगम-वाचना देते थे। सब विधि आध्यात्मिक दिशाबोध देने वाले युगप्रधान आचार्य कहलाते थे।
संप्रति ने जैन धर्म के प्रचार के लिए अपने राज-कर्मचारियों को मुनिवेश पहनाकर द्रविड़, महाराष्ट्र, आंध्र आदि देशों में भेजा। वे अपरिचित और अनार्य देशों में घूमे। सदोष आहार भी कर लेते। यों करके साधुओं के विहार योग्य भूमिका जमा दी। बाद में संप्रति की प्रार्थना पर आचार्य सुहस्ती ने अपने श्रमणों को भी वहाँ भेजा, ऐसा कहा जाता है।
इस प्रकार आचार्य सुहस्ती के शासनकाल में अनेक अकल्पित आयामों का उद्घाटन हुआ।
तीस वर्ष की अवस्था में दीक्षित होकर सत्तर वर्ष तक संयम धर्म की परिपालना कर वी0नि0 292 (वि0पू0 178) में आर्य सुहस्ती अवन्ति में दिवंगत हुए।
(क्रमश:)