श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

जीवनवृत्त: कुछ चित्र, कुछ रेखाएँ
आमलकी क्रीड़ा
कुमार वर्द्धमान आठवें वर्ष में चल रहे थे। शरीर के अवयव विकास की दिशा खोज रहे थे। यौवन का क्षितिज अभी दूर था। फिर भी पराक्रम का बीज प्रस्फुटित हो गया। क्षात्र तेज का अभय साकार हो गया।
एक बार वे बच्चों के साथ ‘आमलकी’ नामक खेल खेल रहे थे। यह खेल वृक्ष को केंद्र मानकर खेला जाता था। खेलने वाले सब बच्चे वृक्ष की ओर दौड़ते। जो बच्चा सबसे पहले उस वृक्ष पर चढ़कर उतर आता वह विजेता माना जाता। विजेता बच्चा पराजित बच्चों के कंधों पर बैठकर दौड़ के प्रारंभ बिंदु तक जाता।
कुमार वर्द्धमान सबसे आगे दौड़ पीपल के पेड़ पर चढ़ गए। उनके साथ-साथ एक साँप भी चढ़ा और पेड़ के तने से लिपट गया। बच्चे डरकर भाग गए। कुमार वर्द्धमान डरे नहीं। वे झट से नीचे उतरे, उस साँप को पकड़कर एक ओर डाल दिया।
अध्ययन
कुमार वर्द्धमान प्रारंभ से ही प्रतिभा-संपन्न थे। उनका प्रातिभ ज्ञान बौद्धिक ज्ञान से बहुत ऊँचा था। उन्हें अतीन्द्रियज्ञान की शक्ति प्राप्त थी। वे दूसरों के सामने उसका प्रदर्शन नहीं करते थे। वे आठ वर्ष की अवस्था को पार कर नौवें वर्ष में पहुँचे। माता-पिता ने उचित समय देखकर उन्हें विद्यालय में भेजा। अध्यापक उन्हें पढ़ाने लगा। वे विनयपूर्वक उसे सुनते रहे।
उस समय एक ब्राह्मण आया। विराट् व्यक्तित्व और गौरवपूर्ण आकृति। अध्यापक ने उसे ससम्मान आसन पर बिठाया। उसने कुमार वर्द्धमान से कुछ प्रश्न पूछेµअक्षरों के पर्याय कितने हैं? उनके भंग (विकल्प) कितने हैं? उपोद्घात क्या है? आक्षेप और परिहार क्या है? कुमार ने इन प्रश्नों के उत्तर दिए। प्रश्नों की लंबी तालिका प्राप्त है, पर उत्तर अप्राप्त। इस विश्व में यही होता है, समस्याएँ रह जाती हैं, समाधान खो जाते हैं।
कुमार के उत्तर सुन अध्यापक के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। बहुत पूछने पर यह रहस्य अनावृत्त हो गया कि वर्द्धमान को जो पढ़ाया जा रहा है वह उन्हें पहले से ही ज्ञात है। अध्यापक के अनुरोध पर वे पहले दिन ही विद्यालय से मुक्त हो गए। हम वर्तमान को अतीत के आलोक में नहीं पढ़ते तब केवल व्यक्तित्व की व्याख्या करते हैं, उसकी पृष्ठभूमि में विद्यमान अस्तित्व को भुला देते हैं। हम वर्तमान को भविष्य के आलोक में नहीं पढ़ते तब केवल उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं, उसकी निष्पत्ति को भुला देते हैं।
वर्तमान में अतीत के बीज को अंकुरित करने और भविष्य के बीज को बोने की क्षमता है। जो व्यक्ति इन दोनों क्षमताओं को एक साथ देखता है वह व्यक्तित्व और अस्तित्व को तोड़कर नहीं देखता, उत्पत्ति और निष्पत्ति को विभक्त कर नहीं देखता, वह समग्र को समग्र की दृष्टि से देखता है। समग्रता की दृष्टि से देखने वाला आठ वर्ष की आयु में घटित होने वाली घटना का बीज आठ वर्ष की अवधि में नहीं खोजता। उसकी खोज सुदूर अतीत तक पहुँच जाती है। कुमार वर्द्धमान के प्रातिभज्ञान को आनुवंशिकता और मस्तिष्क की क्षमता के आधार पर नहीं समझा जा सकता। उसे अनेक जन्मों की शंृखला में हो रही उत्कांति के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।
सन्मति
भगवान् पार्श्व की परंपरा चल रही थी। उनके हजारों शिष्य वृहत्तर भारत और मध्य एशियाई प्रदेशों में विहार कर रहे थे। उनके दो शिष्य क्षत्रियकुंड नगर में आए। एक का नाम था संजय और दूसरे का विजय। वे दोनों चारण-मुनि थे। उन्हें आकाश में उड़ने की शक्ति प्राप्त थी। उनके मन में किसी तत्त्व के विषय में संदेह हो रहा था। वे उसके निवारण का प्रयत्न कर रहे थे, पर वह हो नहीं सका। वे सिद्धार्थ के राज-प्रासाद में आए। शिशु वर्द्धमान को देखा। तत्काल, उनका संदेह दूर हो गया। उनका मन पुलकित हो उठा। उन्होंने वर्द्धमान को ‘सन्मति’ के नाम से संबोधित किया।
प्रश्न का ठीक उत्तर मिलने पर संदेह का निवर्तन हो जाता है। यह संदेह-निवर्तन की साधना पद्धति है। कभी-कभी इससे भिन्न असाधारण घटना भी घटित होती है। महान् अहिंसक की सन्निधि प्राप्त होने पर जैसे हिंसा का विष अपने आप धुल जाता है, प्रज्वलित वैर मैत्री में बदल जाता है, वैसे ही अंतर के आलोक से आलोकित आत्मा की सन्निधि प्राप्त होने पर मन के संदेह अपने आप समाधान में बदल जाते हैं।

(क्रमशः)