धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

उपयोगिता अचेतन की
जिस जगत् में हम जी रहे हैं, वह जीवात्मक और अजीवात्मक है। ऐसा भी स्थान है, जहाँ जीव नहीं हैं, केवल अजीव द्रव्य है। परंतु ऐसा कहीं भी, कभी भी नहीं हो सकता कि केवल जीव है और अजीव द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं है। ऐसा उल्लेख भी असंगत नहीं लगता कि अल्पबहुत्व की मार्गणा की जाए तो जीव अल्प हैं, अजीव धिक हैं। जीव की प्रवृत्तियाँ और निवृत्तियाँ अजीव के सहयोग के बिना निष्पन्न नहीं हो सकती। सिद्ध जीवों के लिए भी अजीव की उपयोगिता है, आवश्यकता है।
जीव से ठीक विपरीत परिभाषा अजीव की है। जिसमें चैतन्य न हो, जानने की प्रवृत्ति न हो, अनुभूति न हो, वह अजीव है। जीव और अजीव ये दोनों एक-दूसरे से विपरीत दीखने वाले पदार्थ हैं। यह पारस्परिक वैपरीत्य एक पहलू का है। यह इनके अपने-अपने विशेष गुण की अपेक्षा से है। अन्य अनेक गुण ऐसे भी हैं, जिनके परिप्रेक्ष्य में देखें तो जीव और अजीव में साम्य और ऐक्य भी है।
गुण का अर्थ है वस्तु का सहभावी (सदा साथ में रहने वाला) धर्म। वह दो प्रकार का होता है-(1) सामान्य गुण, (2) विशेष गुण। जो गुण सब द्रव्यों में पाया जाता है, वह सामान्य गुण है। जो गुण सब द्रव्यों में नहीं पाया जाता, किसी एक अथवा कुछ द्रव्यों में पाया जाता है, वह विशेष गुण है। सामान्य गुणों के आधार पर जीव और अजीव में कोई भेद नहीं किया जा सकता। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्त्व और अगुरुलघुत्व-ये छह सामान्य गुण जीव और अजीव दोनों में पाए जाते हैं। चेतनत्व और अचेतनत्व, जो कि विशेष गुण हैं, के आधार पर जीव और अजीव में भिन्नता का दर्शन किया जा सकता है। जीव और पुद्गल का अमूर्त्त अजीव द्रव्यों के साथ अविच्छिन्न संबंध हैं। जीव और पुद्गल द्रव्यों पर अमूर्त्त अजीव द्रव्यों का सहज उपकार है।
धर्मास्तिकाय एक ऐसा अजीव द्रव्य है जो अमूर्त्त (अरूपी) है, पूरे लोक में फैला हुआ है। इसका कार्य है गति-क्रिया में सहयोग करना। इसकी सहायता के बिना जीव और पुद्गल गति नहीं कर सकते। एक अंगुली का मुझना भी तभी संभव है जब धर्मास्तिकाय का सहयोग मिलता है और सहयोग न मिलने का लोक भी सीमा में कोई प्रश्न ही नहीं है। हमारा सोचना-विचारना, चलना-फिरना, बोलना जो भी स्पंदन-कंपन होता है, वह सारा का सारा धर्मास्तिकाय के सहयोग से होता है। हमारा कितना बड़ा उपकारक है धर्मास्तिकाय। यह स्वयं असंख्येय प्रदेश वाला और स्थित द्रव्य है। यह स्वयं अगतिशील है, किंतु दूसरों के गतिशील बनने में इसकी परम भूमिका रहती है। यह इतना ही बड़ा है, जितना यह लोकाकाश है। यह उदासीन व तटस्थ भाव से सहयोग देता है। यह न तो किसी को चलने के लिए प्रेरित करता है और न किसी को निषेध करता है। जैसे मछली की गति में जल सहायक बनता है वैसे ही जीव और पुद्गल को गति में धर्मास्तिकाय सहायक बनता है।
छह द्रव्यों में दूसरा अजीव द्रव्य है अधर्मास्तिकाय। यह गुणात्मकता और उपयोगिता की दृष्टि से धर्मास्तिकाय से ठीक उलटा है। धर्मास्तिकाय गति में सहायक बनता है, अधर्मास्तिकाय स्थिति (ठहराव, गतिनिवृत्ति) में सहायक बनता है। शरीर की क्रिया, वचन की क्रिया और मन की क्रिया-इनके निरोध में अधर्मास्तिकाय का सहयोग रहता है। पुद्गलों की स्थिरता में भी उसी का सहयोग रहता है। यह भी धर्मास्तिकाय की भाँति असंख्येय प्रदेश वाला, अमूर्त्त और लोकव्यापी है। आतप से संतप्त पथिक के लिए छाया विश्राम में सहयोगी बनती है, इसी प्रकार जीव और पुद्गल की स्थिति में अधर्मास्तिकाय सहयोगी बनता है।
तीसरा अजीव द्रव्य है आकास्तिकाय। क्षेत्र की दृष्टि से सर्वाधिक विशाल द्रव्य यही है। ऐसा कोई स्थान ही नहीं है, जहाँ आकाशास्तिकाय न हो। स्थान स्वयं आकाशास्तिकाय है। यह लोक और अलोक अभयत्र व्याप्त है। यह सर्वव्यापी और एकाकार है, अखंड है। आत्मा और परमात्मा भी इतना व्यापी नहीं है, जितना व्यापी आकाशास्तिकाय है। समझने के लिए इसको दो भागों में बाँटा जा सकता है-लोकाकाश और अलोकाकाश। इसका कार्य है अवकाश देना, भाजनभूत बना रहना। जो भी जीव या जड़ पदार्थ हैं, सब इसी में समाविष्ट हैं, सबका आधार यही है।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का सहयोग हमारे लिए अप्रत्यक्ष है, पुद्गल का हमारे पर जो उपकार है, वह प्रत्यक्ष भी है। खाने-पीने, सोने-बैठने, बोलने-सोचने और श्वासोच्छवास आदि में हमें पुद्गल-जगत् का सहयोग मिलता है। हमारा जीवन पुद्गल-सापेक्ष है। यह स्थूल शरीर स्वयं पुद्गल है और हमारा संचालक कर्मशरीर भी पुद्गल है। जीव भोक्ता है, पुद्गल उपभोग्य है। जीवयुक्त हमारा शरीर भोक्ता है और पुद्गल भोग्य। शुद्ध जीव (सिद्ध-मुक्त) को पुद्गलनिरपेक्ष और अशुद्ध (संसारी) जीव को पुद्गलसापेक्ष कहा जा सकता है।
पुद्गलास्तिकाय का अस्तित्व लोक में ही है। द्रव्य (वस्तु संख्या) की दृष्टि से यह अनंत है। यह धर्मास्तिकाय आदि की भाँति एक और अखंड नहीं है। इसके दो प्रकार हैं-परमाणु और स्कंध। पुद्गल की लघुतम, अविभाज्य और स्वतंत्र इकाई परमाणु है। उसके अतिरिक्त सभी पुद्गल स्कंध है।

(क्रमशः)