अध्यात्म की भूमिका में अहिंसा शुद्ध धर्म है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अध्यात्म की भूमिका में अहिंसा शुद्ध धर्म है : आचार्यश्री महाश्रमण

बदलापुर, 24 जनवरी, 2024
अणुव्रत यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण जी अपनी धवल सेना के साथ आज बदलापुर पधारे। जन मानस की दशा और दिशा को बदलने वाले आचार्यश्री महाश्रमण जी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि अहिंसा एक धर्म है। साधुओं के लिए अहिंसा तो सर्वप्राणातिपात विरमण के रूप में एक महाव्रत है। जो आत्मा में विश्वास करने वाले हैं, कर्मवाद को मानने वाले हैं, पुनर्जन्म को मानने वाले हैं, उनके लिए अहिंसा एक आत्मिक और आत्मकल्याण से संबंधित धर्म होता है।
अहिंसा एक नीति भी है। राजनीति, विदेश नीति भी अहिंसा से भावित हो सकती है। सहअस्तित्व, धर्म और पंथ निरपेक्षता भी अहिंसा से अनुस्यूत है। कोई भी जाति या धर्म को मानने वाला उच्च पद पर आसीन हो सकता है। यह भी एक समानता और अहिंसा की बात है। व्यक्ति स्वतंत्र है पर स्वतंत्रता में स्वच्छंदता नहीं आनी चाहिए। लोकतांत्रिक प्रणाली में अहिंसा एक नीति के रूप में है। चलाकर पर-राष्ट्र पर आक्रमण नहीं करना भी अहिंसा है। धर्म भी नीतिगत हो। अनेक नीतियों से अहिंसा को देखा जा सकता है।
धर्म और नीति से एक विचारणीय विषय बन सकता है कि हिंसा को व्यर्थ में काम में क्यों लें। अहिंसा का साध्य और साधन निर्मल होना चाहिए। हिंसा में भी साध्य सही होना चाहिए। साधु का धर्म तो सहन करना होता है। वे तो अहिंसा के पुजारी हैं। प्रशासन की बात अलग है। पर वहाँ पर भी चलाकर हिंसा न हो।
अध्यात्म की भूमिका में अहिंसा शुद्ध धर्म है। साधु अहिंसात्मक सुरक्षा कर सकता है, हिंसात्मक प्रतिकार साधु नहीं कर सकता। अहिंसा राजनीति-कूटनीति के हिसाब से भी हो सकती है।
पौष शुक्ला चतुर्दशी के अवसर पर पूज्यप्रवर ने हाजरी का वाचन कराते हुए प्रेरणाएँ प्रदान करवाई। रात्रि भोजन विरमण व्रत अहिंसा का अंग है। सूर्यास्त से सूर्योदय तक तो साधु अन्य कार्यों से मुक्त होता है। अपनी धर्माराधना आराम से कर सकता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह व्रत अनुकूल है। हमारी मौलिक मर्यादाएँ हैं-
- सर्व साधु-साध्वियाँ एक आचार्य की आज्ञा में रहें।
- विहार, चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें।
- अपना-अपना शिष्य-शिष्याएँ न बनाएँ।
- आचार्य भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करे, दीक्षित करने पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दें।
- आचार्य अपने गुरुभाई या शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुने उसे सब साधु-साध्वियाँ सहर्ष स्वीकार करें।
ये मर्यादाएँ हमारे संगठन के स्तंभ समान हैं। हमारा सैद्धांतिक पक्ष है-
- त्याग धर्म, भोग अधर्म। व्रत धर्म, अव्रत अधर्म।
- असंयति के जीने की वांछा करना राग, मरने की वांछा करना द्वेष, संसार समुद्र से उसके तरने की वांछा करना वीतराग देव का धर्म है।
इस प्रकार हमारे धर्मसंघ में त्याग और व्रत को महत्त्व दिया गया है।
साधु का जीवन बहुत ऊँचा जीवन है, वह किसी भाग्यशाली को ही मिल सकता है। साधु को अपना साधुत्व, संघ और गुरु प्यारा होना चाहिए।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि धर्म का मूल स्रोत है आत्मा, जिसने आत्मा को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया। हमें आत्मा को जानकर परमात्मा तक पहुँचना है। जब तक सही मार्गदर्शक उपलब्ध नहीं होता तब तक हम आत्मा को भी नहीं पहचान पाते, तो परमात्मा तो बहुत दूर का विषय हो जाता है। हमारा ईश्वर तो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनंत आनंद स्वरूप है। हमें उस ईश्वर की खोज करनी है और वहाँ तक जाना है। गुरु हमारे मार्गदर्शक होते हैं, हमारी ज्ञान चेतना को जगाने वाले होते हैं। जिससे हम वहाँ पहुँच सकते हैं। बिना ज्ञान या विज्ञान से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है। गुरु हमें ज्ञान-विज्ञान प्रदान कराने वाले होते हैं।
पूज्यप्रवर के अभिनंदन में तेरापंथ महिला मंडल, स्थानीय सभाध्यक्ष भैरूलाल पगारिया, जैन समाज से सुबोध परमार, मूर्तिपूजक संघ से राजेश खाटेड़ ने ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। ज्ञानशाला की सुंदर प्रस्तुति हुई। संत सेवा मंडल, बदलापुर के कार्यकर्ताओं ने पूज्यप्रवर से नशामुक्ति का संकल्प लिया। तेरापंथ समाज की भी प्रस्तुति हुई। तेयुप एवं महिला मंडल के सदस्यों ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।