संबोधि

स्वाध्याय

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बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
बारह भावनाएँ
 
(4) उपेक्षा भावना-अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों ही स्थितियों में सर्वत्र सम रहना ‘अपेक्षा’ है। साधक को न पदार्थों से जुड़ना है और न बिछुड़ना है। पदार्थ पदार्थ है। उसमें राग-द्वेष नहीं है। राग-द्वेष है अपने भीतर। जब आदमी किसी से जुड़ता है तो राग और बिछुड़ता या घृणा करता है तो द्वेष आता है। साधक को कहीं भी राग और द्वेष दिखाई दे, वह तत्काल उनकी उपेक्षा कर अपने भीतर चला जाए। यह जैसे पदार्थों के साथ होता है, वैसे व्यक्ति के व्यक्तित्व, रूप, विशिष्ट कौशल आदि पर भी होता है। भिक्षु वक्कलि बुद्ध के रूप पर इतना मुग्ध हो गया, उसे ही निहारता रहता। बुद्ध ने कहा-‘क्या है वक्कलि मेरे इस शरीर में? जैसा हाड़, मांस, रक्त आदि तुम्हारे शरीर में है, वैसे ही इसमें है। रूप को देखना है, तो बुद्ध के धर्म-कार्य का रूप देखो। जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है। यह भी बंधन है। आनंद बुद्ध से बंधे रहे। गौतम महावीर से बंधे रहे। बंधन का मार्ग सरल है। मनुष्य बंधन-प्रिय है। पर वह बंधन छोड़ता है तो दूसरा कहीं न कहीं जोड़ लेता है। उपेक्षा करना कठिन है। उपेक्षा भावना का साधक कहीं किसी भी जड़ और चेतन के साथ बंधता नहीं। वह आने वाले समस्त बंधनों की उपेक्षा कर तटस्थ भाव से अपने ध्येय में गति करता रहता है।
अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बने। संसद में भाषण देने जब खड़े हुए, तब किसी ने व्यंग्य कसा। कहा-आपको याद है, आप चमार के लड़के हैं। लिंकन ने कहा-धन्यवाद, आपने पिता का स्मरण दिलाया और मैं आगे आपसे कहना चाहता हूँ, मेरे पिताजी कुशल चमार थे। मैं इतना कुशल राष्ट्रपति नहीं बन सकूँगा। दूसरी बार फिर कहा-‘वे जूते बनाते थे।’ लिंकन बिलकुल उत्तेजित नहीं हुए। उसी तटस्थ भाव से कहा-‘हाँ, किंतु किसी ने कभी कोई शिकायत नहीं की। क्या आपको कोई शिकायत है?’
साधक जब उपेक्षा भाव में निष्णात हो जाता है तब हर्ष और विषाद, सुख और दुःख, सम्मान और अपमान आदि द्वंद्व सहजतया क्षीण होते चले जाते हैं।
भावना के अभ्यास के लिए एक सहज सरल विधि का प्रयोग आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने इस प्रकार बतलाया है-‘भावना का अभ्यास निम्न निर्दिष्ट प्रक्रिया से करना इष्ट सिद्धि में अधिक सहायक हो सकता है। साधक पद्मासन आदि किसी सुविधाजनक आसन में बैठ जाए। पहले श्वास को शिथिल करे। फिर मन को शिथिल करे। पाँच मिनट तक उन्हें शिथिल करने के लिए सूचना देता जाए। वे जब शिथिल हो जाएँ तब उपशम आदि पर मन को एकाग्र करें। इस प्रकार निरंतर आधा घंटा तक अभ्यास करने से पुराने संस्कार विलीन हो जाते हैं और नए संस्कारों का निर्माण होता है।’
 
(77) सम्यग्दर्शनसंपन्नः, श्रद्धावान् योगमर्हति।
विचिकित्सां समापन्नः, समाधिं नैव गच्छति।।
जो सम्यग् दर्शन से संपन्न और श्रद्धावान् है, वह योग का अधिकारी है। जो संशयशील है, वह समाधि को प्राप्त नहीं होता।
 
(78) आस्तिक्यं जायते पूर्वं, आस्तिक्याज्जायते शमः।
शमाद् भवति संवेगो, निर्वेदो जायते ततः।।
 
(79) निर्वेदादनुकंपा स्याद्, एतानि मिलितानि च।
श्रद्धावतो लक्षणानि, जायन्ते सत्यसेविनः।। (युग्मम्)
पहले आस्तिक्य होता है, आस्तिक्य से शम होता है, शम से संवेग होता है, संवेग से निर्वेद होता है और निर्वेद से अनुकंपा उत्पन्न होती है। ये सब सत्यसेवी श्रद्धावान् अर्थात् सम्यग्दृष्टि के लक्षण हैं।
 
(क्रमशः)