शरीर रूपी नौका से भवसागर तरने के लिए करें धर्म साधना : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शरीर रूपी नौका से भवसागर तरने के लिए करें धर्म साधना : आचार्यश्री महाश्रमण

उलवे, 4 फरवरी, 2024
अध्यात्म का पथ प्रशस्त करते हुए वृहत्तर मुंबई में यात्रायित परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने उलवे के महाश्रमण समवसरण में फरमाया कि जीवन में जीव और शरीर दोनों विद्यमान हैं। जीव रहित शरीर है तो जीवन नहीं और शरीर रहित जीवन है तो संसारी अवस्था का जीवन नहीं होता है। इस प्रकार जीव और शरीर अलग-अलग हैं। नास्तिक विचारधारा के अनुसार जीव और शरीर एक ही हैं, आस्तिक मान्यता है कि जीव अलग है और शरीर अलग है। शरीर और आत्मा साथ में तो हैं परंतु दोनों का अस्तित्व अलग-अलग है। रायपसेणीयम आगम में आचार्य कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी के बीच की चर्चा का वर्णन मिलता है। दोनों में परस्पर चर्चा हुई और उस चर्चा में आखिर राजा प्रदेशी जो नास्तिक विचारधारा को मानने वाले थे उन्होंने कुमार श्रमण केशी की बात से सहमत होकर धर्म को स्वीकार कर लिया था।
शास्त्र में शरीर को नौका कहा गया है। शरीर एक नौका है और यह जीव नाविक है। यह संसार जन्म-मरण की परंपरा है, अर्णव (समुद्र) है और महर्षि लोग इस सागर को इस शरीर रूपी नौका से तर जाते हैं अर्थात् हमारा मनुष्य जीवन एक नौका के रूप में हमारे काम आ सकता है। हम इस शरीर से धर्म की साधना करें, संयम और तप से अपने आपको भावित करें तो यह शरीर इस भवसागर से पार कराने में एक नौका की भूमिका अदा कर सकता है।
शरीर में कई बार बीमारी भी आ सकती है, बुढ़ापा भी आ सकता है, इंद्रियों की शक्ति कम हो सकती है। इसलिए जब तक शरीर की सक्षमता रहे तब तक साधना, आराधना पर ध्यान दें लेना चाहिए। धर्म की साधना शरीर से करनी है तो यह नौका है, वह ठीक रहनी चाहिए। शरीर बल के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। मनोबल कितना ही हो पर शरीर बिलकुल अक्षम है तो कोरे मनोबल से काम हो पाना मुश्किल है। शरीर की सक्षमता होगी तो दूसरों की सेवा करने का अवसर भी मिल सकता है।
इसलिए जब तक शारीरिक कमजोरी ना आए, बुढ़ापा पीड़ित न करे, इंद्रियाँ भी हीन न बने तब तक आदमी को धर्म की अच्छी साधना कर लेनी चाहिए, धर्म का समाचरण कर लेना चाहिए। इसलिए शरीर की सक्षमता बहुत अपेक्षित है। चेहरा सुंदर है या नहीं कोई खास बात नहीं है पर शरीर की निरोगता, सक्षमता रहनी चाहिए।
जितना हो सके स्वयं अपना काम करें। अपने दो हाथ, दो पाँव हैं उनका उपयोग लेना चाहिए, दूसरों पर आश्रित नहीं होना चाहिए। कहा गया है-परवश होना दुःख है, स्वावलंबी होना सुख है। अपने हाथ-पाँव सक्षम रहें, दूसरों पर निर्भरता न रहे, सेवा सापेक्ष की अग्लान भाव से सेवा भी करें। पूज्यप्रवर के स्वागत में स्वागताध्यक्ष चंद्र प्रकाश मेहता, डॉ0 चेतन ने अपने विचार व्यक्त किए। तेममं ने गीत का संगान किया। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने सुंदर प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।