मृषावाद से दूर रहे इंसान : आचार्यश्री महाश्रमण
फुंडे, 5 फरवरी, 2024
तीर्थंकर के प्रतिनिधि अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अपनी मंगल देशना में फरमाया कि जैन विद्या में पाप के 18 प्रकार बताए गए हैं। पाप स्थान, आश्रव और पाप बंध ये तीन घटनाएँ हो जाती हैं। एक आदमी प्राणातिपात हिंसा करता है, इसके साथ अतीत, भविष्य और वर्तमान भी जुड़े हुए हैं। अतीत का संबंध पाप स्थान से है, जिसके कारण व्यक्ति पाप कर्म की ओर प्रवृत्त होता है। वर्तमान में व्यक्ति हिंसा करता है, उससे कर्म का बंध होता है जिसका फल उसे भविष्य में मिलने वाला होता है।
पाप की 18 प्रवृत्तियों में पहली हैµप्राणातिपात अर्थात् जीव को मारने की प्रवृत्ति। जैसे प्राणातिपात तीनों कालों से जुड़ा हुआ है वेसे ही मृषावाद-झूठ बोलना भी तीनों कालों से जुड़ा हुआ है। क्रोध, भय, हास्य, झूठ बोलने के कारण हो सकते हैं। आदमी कई बार अनजाने में या कई बार जान-बूझकर भी झूठ बोल देता है। स्वार्थ या परार्थ के लिए, दूसरे को कष्ट देने के उद्देश्य से या किसी को बचाने के उद्देश्य से भी झूठ बोल सकता है। कौन सा कार्य आदमी किस इरादे से करता है वह महत्त्वपूर्ण है। क्रिया में समानता हो सकती है पर उद्देश्य में अंतर हो सकता है। डॉक्टर रोगी के रोग मुक्ति के लिए चीर-फाड़ करता है और डाकू चोरी या हिंसा की दृष्टि से चीर-फाड़ करता है। यहाँ क्रिया में समानता हो सकती है पर उद्देश्य, भावना में बहुत अंतर है। कर्म बंधन का हमारा लक्ष्य महत्त्वपूर्ण होता है। हमारी भावना क्रिया के फल की भूमिका बनाती है।
शास्त्रकार ने कहा है हिंसक झूठ मत बोलो। न स्वयं के लिए, न दूसरे के लिए, न गुस्से से बोलो, न भय के कारण से बोलो, झूठ मत बोलो। साधुओं के लिए सर्व मृषावाद विरमण तो महाव्रत है। सच्ची बात भी यदि हिंसा में योगदान देती हो तो साधु को तो ऐसी परिस्थिति में मौन रहना चाहिए, इससे झूठ और हिंसा दोनों से बचाव हो जाता है। गृहस्थ भी ऐसा झूठ न बोलें जिससे दूसरे को तकलीफ हो, हिंसा हो। आचार्यप्रवर के प्रवचन के पश्चात् विद्यालय की ओर से सुधीर महात्रे, प्रियंवदा ताम्बोडकर एवं अणुव्रत समिति से सुभाष मेहता ने अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।