संपादकीय

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विज्ञान ने जगत को दो भागों में विभक्त किया है-सजीव और निर्जीव। जैन दर्शन भी दो राशि बतलाता हैµजीव, अजीव। जीव को संसार में जीवन-यापन करने, विकास करने एवं साधना करने के लिए किसी-न-किसी माध्यम की, सहारे की आवश्यकता होती है। हालाँकि, एक इंसान कुछ हद तक अकेला रह सकता है, अकेला कार्य भी कर सकता है, पर उसका क्षेत्र बहुत ही सूक्ष्म होता है। जब एक और एक मिलकर दो, ग्यारह या उससे भी अधिक हो जाते हैं तो वे किसी रिश्ते का, किसी संस्था का या किसी संगठन का रूप ले लेते हैं। एक व्यक्ति हो तो उसे शायद किसी नियमावली की, मर्यादा की आवश्यकता न हो, पर प्रकृति तो अपने नियम अनुसार ही चलती है। यदि एक व्यक्ति भी नियम से अछूता नहीं है तो किसी संस्था के लिए तो नियम या मर्यादा अति आवश्यक है। मर्यादा हमें वह राह दिखाती है, जिस पर चलकर हमें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए लक्षित मंजिल को प्राप्त करना है। मर्यादा है तो लक्ष्य है, बिना मर्यादा के लक्ष्य भी नहीं हो सकते।
हर परिवार, व्यापार, मल्टी नेशनल कंपनी, राजनीतिक दल, धार्मिक संगठन, सामाजिक संगठन, राज्य, देश आदि में प्रत्येक सदस्य हेतु कुछ करणीय और कुछ अकरणीय बातें चिह्नित रहती हैं। आपने देखा भी होगा कि हर बड़ी कंपनी के अपने विजन, मिशन और चार्टर स्पष्ट रहते हैं। देश का भी अपना संविधान होता है, जिसके माध्यम से नागरिक अपना एवं पूरे देश का कल्याण कर सकें। उसी प्रकार जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ का भी अपना एक संविधान है। संविधान तो शायद अन्य धार्मिक संगठनों के भी होंगे पर उस संविधान पर अक्षरशः चलना, 264 वर्षों बाद भी मूल गुणों को सुरक्षित रखना और उसे पूरे उल्लास के साथ उत्सव के रूप में मनाना, यह केवल तेरापंथ में ही मिल सकता है।
आचार्य भिक्षु ने सत्य शोध के लक्ष्य से एक अलग, पर कठिन पथ का चुनाव किया। साधु संघ की तत्कालीन व्यवस्थाओं, शिथिलताओं एवं भविष्य के गर्भ में छिपी अनेकों संभावनाओं को समझते हुए उन्होंने कुछ धाराओं का निर्माण किया। ये धाराएँ उन्होंने किसी पर थोपी नहीं अपितु एक-एक साधु को अलग-अलग दिखलाकर उनकी सहमति प्राप्त की। यह प्रसंग जहाँ आचार्य भिक्षु के आदर्श व्यवहार का उदाहरण है वहीं उन संतों की विनम्रता भी दर्शाता है। उन संतों ने सभी धाराओं को सहर्ष स्वीकार किया और शायद इसी के साथ तेरापंथ की नींव में समर्पण और अनुशासन की स्थापना हो गई।
तेरापंथ धर्मसंघ में पट्टोत्सव, चरमोत्सव और मर्यादा महोत्सव विशेष स्थान रखते हैं। इनमें भी मर्यादा महोत्सव सबसे बड़ा माना जाता है। संघीय संरचना को एकजुट और गतिशील रखने का यह अद्भुत पर्व हर वर्ष माघ महीने की शुक्ला सप्तमी को मनाया जाता है। सेवा, समर्पण एवं अनुशासन की भावना तेरापंथ धर्मसंघ के हर सदस्य को जन्मघूट्टी के रूप में प्राप्त हो जाती है। सेवा एवं समाधि केंद्रों हेतु सेवादायी सिंघाड़ों की घोषणा न केवल वृद्ध साधु-साध्वियों की चित्त समाधि एवं साधना में सहायक बनती है अपितु अन्य चारित्रात्माओं को सेवा और निर्जरा का प्रायोगिक प्रशिक्षण भी देती है। आचार्यप्रवर द्वारा संघ के सदस्यों की सारणा-वारणा इस उत्सव का अभिन्न अंग होता है। यदि कोई सदस्य कर्तव्य पथ से थोड़ा भी च्युत होता हो तो उसे परिष्कार एवं प्रायश्चित का अवसर प्राप्त हो जाता है। सप्तमी के दिन बड़ी हाजरी का वाचन, देश-विदेश के चतुर्मासों एवं समणी केंद्रों की घोषणा उत्सुकता लिए होती है। बजट में देश का वित्त मंत्री जब घोषणाएँ करता है तब तो आम नागरिक की भावना रहती है कि हमें क्या मिला, हमारा क्या बचा, पर मर्यादा महोत्सव की घोषणाएँ कुछ बचाने नहीं अपितु संघ के सदस्यों की कार्यशैली और गुणवत्ता को बढ़ाने में सहायक बनती हैं।
आवश्यक है कि संघ का हर सदस्य सेवा, समर्पण और अनुशासन के संस्कारों की अभिवृद्धि करता जाए। आचार्यप्रवर बहुधा फरमाते हैं कि प्राण छूट जाए पर प्रण ना छूटे। इस धर्मसंघ का हर सदस्य इस प्रेरणा को सदा आगे रखकर चले, गण और गणपति की प्रभावना के अनुरूप कार्य करता रहे और हम सभी वर्तमान अनुशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी की सन्निधि युगों-युगों तक प्राप्त करते रहें।