मर्यादा का कल्पतरु हर आँगन में फले

मर्यादा का कल्पतरु हर आँगन में फले

साध्वी अणिमाश्री - साध्वी सुधाप्रभा
आज तेरापंथ धर्मसंघ मर्यादा के सुपरस्टार, मर्यादा पुरुष युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी के नेतृत्व में 160वाँ मर्यादा महोत्सव मुंबई में मना रहा है। मर्यादा के महाकुंभ की पवित्र जलधारा देश-विदेशों में प्रवाहित हो रही है। मर्यादा क्या है? मर्यादा क्यों जरूरी है? आओ, जानें-
मर्यादा संघ रूपी नगर का वह मजबूत परकोटा है, जिसमें रहकर व्यक्ति विकास के प्रांशु-शिखरों पर आरोहण करता है।
मर्यादा वह मजबूत रथ है, जिस पर आरूढ़ होकर व्यक्ति अपनी लक्षित मंजिल का वरण कर सकता है।
मर्यादा संघ रूपी सूर्य की प्रभास्वर किरण है, जिसकी प्रभा से सारा संघ देदीप्यमान हो रहा है।
संघ-कमल के चारों ओर मर्यादा व अनुशासन के गूँजायमान भंवरे संघ-चमन की शोभा बढ़ा रहे हैं।
संघ-समुद्र में मर्यादा व अनुशासन की लहरें हिलोरें ले रही हैं। उन लहरों का आलिंगन करने वाला व्यक्ति समुद्र की तरह गंभीरता व विशालता का वरण कर रमणीय बन जाता है।
सचमुच मर्यादा को सर्वस्व मानने वाला व्यक्ति, मर्यादा को प्राणाधिक मानने वाला संगठन, मर्यादा को सर्वोपरि मानने वाला परिवार, समाज, राष्ट्र उच्चत्व को प्राप्त कर उच्चता के शिखर पर आरूढ़ हो जाता है। हर क्षेत्र में मर्यादा का अपना विशिष्ट महत्त्व है-
व्यक्ति को महिमामंडित बनाती है-मर्यादा
मर्यादा से जीवन का शृंगार करने वाले राजकुमार राम न केवल श्रीराम कहलाए बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अभिधान से महिमामंडित होकर जन-जन की श्रद्धा के धाम बन गए।
मर्यादा का शस्त्र हाथ में लेकर ज्येष्ठ पांडुपुत्र युधिष्ठिर धर्मराज युधिष्ठिर बनें एवं महाभारत में विजयी बने।
मर्यादा के पथ पर कदम बढ़ाने वाला युवा नरेंद्र एक दिन स्वामी विवेकानंद बनकर भारत की आँखों का तारा बन गया।
इतिहास में एक नहीं सहòों ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने मर्यादा का बाना पहनकर अपने जीवन को चमकाया है। उनमें एक नाम है-नेपोलियन बोनापार्ट का। बोनापार्ट नाम का एक युवा, जो आगे चलकर नेपोलियन के नाम से विश्व-विख्यात हुआ, जिसने मर्यादा, अनुशासन, आत्मसंयम और दूरदर्शिता से अपने व्यक्तित्व को गढ़ा।
नेपोलियन के किशोरावस्था की घटना है। उन्हें अपने अध्ययन के लिए अक्लोनी नामक स्थान में एक नाई के घर पर रहना पड़ा। वह आकर्षक व्यक्तित्व वाला एक युवा था। नाई की स्त्री उस पर मुग्ध हो गई और उसको अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करती रहती। किंतु नेपोलियन के सामने हिमालय जैसा लक्ष्य था। जब भी नाई की स्त्री बोलने का प्रयास करती, वह हाथ में पुस्तक लेकर पढ़ने लग जाता। नेपोलियन की दिनचर्या बड़ी संयमित, अनुशासित व मर्यादित थी।
वही नेपोलियन एक दिन अपने देश का प्रधान सेनापति बना। उसे एक बार उस स्थान पर जाने का मौका मिला, जहाँ रहकर उसने शिक्षा ग्रहण की थी। नेपोलियन का मन उस घर को देखने का हो गया, जहाँ रहकर उन्होंने अध्ययन किया था। नेपोलियन वहाँ पहुँचा, वह नाई की स्त्री दुकान में बैठी थी। नेपोलियन उस स्त्री से बतियाने लगा। उस स्त्री से पूछा-तुम्हें याद है, एक बोनापार्ट नाम का युवक पढ़ने के लिए तुम्हारे घर रहता था। वह बोली-आपने किस नीरस व्यक्ति का नाम ले लिया, वह भी कोई याद रखने वाला व्यक्ति था। जो न गाना जानता था और न नाचना। उसे तो मीठी बातें करनी भी नहीं आती थी, हमेशा किताबों में ही डूबा रहता था।
उस स्त्री की बातें सुनकर नेपोलियन खिलखिलाकर हँस पड़ा और कहने लगा-देवी! तुम ठीक कहती हो, वह ऐसा ही युवक था, पर हाँ वह बोनापार्ट यदि तुम्हारी रसिकता में उलझ गया होता तो आज देश का प्रधान सेनापति बनकर तुम्हारे सामने खड़ा नहीं होता।
सचमुच मर्यादा ही व्यक्ति को महान बनाती है। मर्यादित जीवन जीने वाला व्यक्ति एक दिन दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाकर सदियों-सदियों के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाता है। अपेक्षा है हर व्यक्ति अपनी जीवन-बगिया को मर्यादा व अनुशासन के फूलों से सुवासित करे।
संगठन को सशक्त बनाती है-मर्यादा
मर्यादा हर संगठन का प्राणवान आधार है। मर्यादा के अभाव में अनेक सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक संगठनों को टूटते व बिखरते देखा है।
जिस संगठन में विकास रूपी पतंग की डोर मर्यादा होती है, वह पतंग ऊँचे नील गगन में उड़ता हुआ सबके आकर्षण का केंद्र बन जाता है।
जिनशासन की एक अधुनातन शाखा, उदीयमान तेरापंथ धर्मसंघ अपनी मर्यादा व अनुशासन के कारण जिनशासन के ऊँचे नभ में सूरज बनकर चमक रहा है।
आज से लगभग 265 वर्ष पूर्व आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ की नींव डाली। आचार्य भिक्षु जानते थे कि मर्यादा व अनुशासन के बिना कोई भी संगठन तेजस्वी, यशस्वी व वर्चस्वी नहीं बन सकता। वे इस बात को जानते थे कि अनुशासनहीन व आचारहीन संघ अस्थियों का ढाँचा मात्र बनकर रह जाता है। इसलिए उन्होंने अपने अतीत के अनुभव, वर्तमान के युगबोध और आगम परक सूझबूझ के द्वारा ऐसी मर्यादाओं का निर्माण किया, जो त्रैकालिक सत्य का प्रतीक बन गई हैं, वे मर्यादाएँ केवल उस युग के लिए ही नहीं बल्कि आने वाली सहòाब्दियों तक संगठन का सुदृढ़ आधार बनेगी।
आचार्य भिक्षु ने अपने संघ के लिए जिन मर्यादाओं का निर्माण किया, वे मर्यादाएँ संघ के साधु-साध्वियों पर जबरन थोपी नहीं। उनका कहना था, मर्यादाएँ किसी पर थोपी नहीं जातीं, वे सहज आत्मसाक्षी से स्वीकृत होती हैं। आचार्य भिक्षु ने अपने हाथों से जो लकीरें खींची, वे लकीरें आज इस धर्मसंघ की मर्यादा बनकर संघ को सुरक्षा प्रदान कर रही हैं।
मर्यादा को प्राणाधिक मानने वाला संगठन ही शताब्दियों तक अपने वजूद को कायम रख सकता है। तेरापंथ इसका जागृत उदाहरण है।
समाज को विखंडित होने से बचाती है-मर्यादा
मर्यादा उस व्यवस्था व अनुशासन को कहते हैं, जिसे अंगीकार कर व्यक्ति, समाज, संगठन व राष्ट्र विकास करते हैं। अमर्यादित व्यक्ति, समाज एवं सभ्यता के विकास की बात तो दूर उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिÐ लग जाता है। इतिहास साक्षी है अमर्यादित रावण, कंस, दुर्योधन काल के गाल में समाहित हो गए। ऐसे ही अनेक समाज भी मर्यादा के अभाव में अपेक्षित विकास नहीं कर सके।
सभ्यता के बारे में ‘यूनान, मिश्र, रोम सब मिट गए जहाँ से’ पंक्ति सोदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। इन राष्ट्र रूपी सभ्यताओं ने मर्यादाओं का बाना उखाड़ फैंका तो काल-कवलित हो गए।
मर्यादा वह अंकुश है, जो सभी को सीमा में रहकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। अगर हमें अपने समाज एवं सभ्यता को विखंडन से बचाना है तो मर्यादा की शरण स्वीकार करनी होगी।
परिवार की प्रगति व खुशहाली का राज है-मर्यादा
परिवर की खुशहाली एवं प्रगति के लिए जरूरी है-मर्यादा। जो परिवार अपने विवेक से, बुद्धि से मर्यादा का कवच पहनकर जीवन के यथार्थ धरातल पर उतरता है, वह सुरक्षित रहता है, मर्यादा वह फौलादी नींव है, जिस पर परिवार का महल मजबूती से टिका रहता है।
पर आज घर-परिवार में मर्यादाओं की उपेक्षा हो रही है। मर्यादा को नजरअंदाज किया जा रहा है। मर्यादा को भार माना जा रहा है। मर्यादा बंधन समझाी जा रही है। पर सच मानिए, कभी-कभी बंधन भी हमारे लिए वरदान बन सकता है।
मोतियों को बाँधा तो गले का हार बन गया। अगर परिवार को मोतियों की आभा से आभामंडित करना है तो घर-परिवार की एक मर्यादा होनी चाहिए। देश, समाज व संगठन की तरह परिवार का भी एक संविधान होना चाहिए।
जिस प्रकार हमारे धर्मसंघ की मौलिक मर्यादाओं में एक मर्यादा है-‘सर्व साधु-साध्वियाँ एक आचार्य की आज्ञा में रहें।’ ठीक ऐसे ही परिवार की भी एक मुख्य मर्यादा होनी चाहिए कि परिवार का हर सदस्य परिवार के मुखिया की आज्ञा में चले। अगर हर परिवार में यह मर्यादा बन जाती है तो वह परिवार, समाज रूपी आकाश में ध्रुवतारे की तरह चमकने लगता है एवं उस परिवार की प्रगति एवं खुशहाली को कोई रोक नहीं सकता।
किंतु आज उच्छृंखलता, उद्दंडता एवं स्वच्छंदता के युग में पारिवारिक मर्यादाएँ ध्वस्त हो रही हैं। फलस्वरूप घर-परिवार में विखंडन की
स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। अगर अपने परिवार को इन स्थितियों से बचाना है तो मर्यादाओं का सम्मान करना सीखें।
मर्यादा महोत्सव के पवित्र दिन पर अपने मन को इस संकल्प से भावित करें कि मैं परिवार की मर्यादा का अक्षरशः पालन करूँगा/करूँगी एवं अपने परिवार को प्रगति एवं खुशहाली के राजमार्ग पर प्रस्थित करूँगा।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार नदी की जलधारा के लिए जितना तट का महत्त्व होता है, उतना ही व्यक्ति, संगठन, समाज व परिवार के लिए मर्यादा का महत्त्व है। तट को तोड़कर जिस तरह नदी उच्छृंखल बन जाती है, विकास का साधन नहीं, विनाश का कारण बन जाती है, उसी तरह मर्यादाविहीन व्यक्ति, संगठन, समाज व परिवार उन्नति की दिशा में अग्रसर नहीं हो पाते, उनकी शक्ति का सही उपयोग नहीं हो सकता। इसलिए मर्यादा की गौरव-गाथा गाते हुए यही कहा जा सकता है कि-
जीवन के कदम-कदम पर जिसका साथ जरूरी है, वह है-मर्यादा।
जीवन को शक्ति का पर्याय बनाने वाली विधा का नाम है-मर्यादा।
मंजिल से मुलाकात करवाने वाली डगर का नाम है-मर्यादा।
जीवन-गुलशन की सदाबहार सौरभ का नाम है-मर्यादा।
जिंदगी की शमां के हर मोड़ पर फानूस बनकर हिफाजत करती है-मर्यादा।
हमारे शरीर के साढ़े तीन सौ करोड़ रोम से एक ही स्वर अनुगूँजित हो-
मेरं शरणं गच्छामि! मेरं शरणं गच्छामि!!