विश्व का विशिष्टतम उत्सव - मर्यादा महोत्सव

विश्व का विशिष्टतम उत्सव - मर्यादा महोत्सव

मुनि चैतन्य कुमार ‘अमन’
आज जब हम न केवल भारतीय परंपरा में बल्कि विश्व स्तर पर नजर पसारते हैं तो अनेक प्रकार के पर्वों, त्योहारों, उत्सवों की समायोजना देखने को मिलती है, जो उल्लासपूर्वक क्षणों में मनाए जाते हैं। किंतु इन सबसे अलग हटकर एक ऐसा भी धार्मिक महोत्सव मनाया जाता है, जिसको अलौकिक महोत्सव की उपमा से उपमित किया जा सकता है और वह अलौकिक महोत्सव है-मर्यादा महोत्सव। यह मर्यादा महोत्सव जैन धर्म के अंतर्गत तेरापंथ धर्मसंघ में हर वर्ष मनाया जाता है, जो अन्यत्र दुर्लभ कहा जा सकता है।
मर्यादा अर्थात संविधान। वैसे तो प्रत्येक राष्ट्र, समाज और संघ का अपना संविधान होता है, परंतु तेरापंथ के संविधान की विलक्षणता यह है कि उस संविधान का केवल पठन और वाचन ही नहीं वरन् हृदय से उसका पालन होता है, क्योंकि वे मर्यादाएँ किसी पर थोपी हुई नहीं, सहज आत्मसाक्षी से स्वीकृत होती है। करीब दो शताब्दी पूर्व मारवाड़ की वीर प्रसूता पुण्य धरा पर जन्मा एक महामानव जिसने संन्यास स्वीकार कर एक धर्मक्रांति का शंखनाद फूँका वह मानव कोई और नहीं तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्राण आचार्यश्री भिक्षु थे, जिन्होंने अपने लौह हाथों से जो लकीरें खींची, वे लकीरें आज इस संघ की मर्यादाएँ बन गई और इन मर्यादाओं पर चलकर साधक अपनी साधना के साथ गौरव की अनुभूति करता है। क्योंकि इन मर्यादाओं के साथ उसका प्रशस्त विवेक जुड़ा हुआ है, जिससे मर्यादाओं का सही मूल्यांकन हो पाया है।
श्रद्धा के युग में मर्यादाओं का पालन सहज हो जाता है किंतु तर्क के युग में इसकी अनुपालना सहज नहीं हो पाती, फिर भी संघ का प्रत्येक साधक इन मर्यादाओं के प्रति आस्थावान श्रद्धावान होकर पालन करता है। संघ के संचालक स्वयं आचार्य भी कुशलतापूर्वक साधक की अंतश्चेतना में मर्यादाओं के प्रति आस्था पैदा करते हैं। क्योंकि सक्षम व सफल नेतृत्व वह कहलाता है, जो सबको साथ लेकर चल सकें और वे ही मर्यादाएँ सफल और सार्थक होती हैं जो युगीन हों, तर्क सम्मत हों। आचार्य भिक्षु महान विलक्षण मेधा के धनी पुरुष थे, उन्होंने देखा धर्मसंघ विस्तार पा रहा है, तब उन्होंने संघ की सुव्यवस्था के लिए धाराएँ बनाई, वे धाराएँ मर्यादाएँ बनी और वे मर्यादा निर्माता बन गए। किंतु धर्मसंघ की दृष्टि से उन मर्यादाओं का महत्त्व तब हो पाया जब संघ के प्रत्येक सदस्य ने उसे आचरण में स्वीकार किया। इसी तेरापंथ में चतुर्थ आचार्य श्रीमद् जयाचार्य ने इन मर्यादाओं को महोत्सव के रूप में मनाना प्रारंभ किया, अतः इस महोत्सव का नामकरण हुआ-मर्यादा महोत्सव। आचार्य भिक्षु से जब एक व्यक्ति ने प्रश्न किया भीखण जी आपका यह पंथ कब तक चलेगा? उन्होंने सहजता के साथ उत्तर दिया जब तक इस संघ के दीक्षित साधु-साध्वियाँ इन मर्यादाओं का समर्पण एवं निष्ठा के साथ पालन करते रहेंगे, तब तक यह संघ चलता रहेगा। जिन सात साधुओं की विद्यमानता में मर्यादाएँ बनाई गईं, वे मर्यादाएँ आज सात सौ साधुओं में भी उसी प्रकार पालन की जा रही हैं तथा सात हजार की संख्या होने पर भी इसी प्रकार पालन की जाती रहेंगी, वे मौलिक मर्यादाएँ निम्न प्रकार हैं-
- प्रत्येक साधु-साध्वी एक आचार्य की आज्ञा में रहें। विहार चातुर्मास आचार्य के आदेशानुसार करें।
- शिष्य-शिष्याएँ नहीं बनाएँ।
- दलबंदी-गुटबंदी नहीं करें।
- पद के लिए उम्मीदवार न बनें।
- आचार्य भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें।
इस प्रकार की ये छोटी-छोटी मर्यादाएँ व्यक्ति के जीवन को उच्चता और शिष्टता प्रदान करने वाली है। मर्यादा और अनुशासन के अभाव में व्यक्ति जीवन के आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकता तथा जीवन को उच्छंृखल बना देता है वह राष्ट्र, समाज, संघ कभी भी विकास नहीं कर सकता जहाँ अनुशासन, व्यवस्था और मर्यादा के प्रति आस्था का भाव नहीं है। आस्था के अभाव में मर्यादाएँ हमारा कल्याण नहीं कर सकती। वे ही मर्यादाएँ सफल हो पाती हैं, जिनके प्रति गहरी आस्था का भाव हो। राजनीति के क्षेत्र में कानून डंडे के बल पर थोपा जाता है, आरोपित किया जाता है, जबकि धर्म के क्षेत्र में मर्यादाएँ सहज रूप से स्वीकृत होती हैं। तेरापंथ धर्मसंघ की मूल मर्यादाओं का निर्माण आचार्य भिक्षु द्वारा दो सौ वर्ष पूर्व किया गया, साथ ही उन्होंने उत्तरवर्ती आचार्यों को परिवर्तन और संशोधन का पूर्णतः अधिकार दिया। किंतु आज तक इतिहास में दस आचार्य हो चुके हैं। एकादशम आचार्य श्री महाश्रमण हैं, पर किसी भी आचार्य ने इन मूल मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन की अपेक्षा नहीं समझी। प्रतिवर्ष माघ शुक्ला सप्तमी के दिन सैकड़ों-सैकड़ों साधु-साध्वियों द्वारा इन मर्यादाओं के प्रति आस्था दोहराई जाती है। इस अलौकिक महोत्सव के अवसर पर आचार्य साधु-साध्वियों के लिए चातुर्मासिक स्थानों की घोषणा करते हैं तथा जनता के मध्य मर्यादा पालन का संदेश देते हैं। साधु-साध्वियाँ आचार्य की आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य कर गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर अपने-अपने क्षेत्रों की ओर प्रस्थान कर देते हैं तथा जन-जन के बीच मर्यादा, अनुशासन, व्यवस्था, पारस्परिक, सौहार्द भाव, मानवीय एकता का संदेश प्रसारित करते हुए कल्याण-मार्ग पर बढ़ते रहते हैं। स्वतंत्र भारत में गणतंत्र दिवस अर्थात् 26 जनवरी का जो महत्त्व है, तेरापंथ धर्मसंघ में मर्यादा महोत्सव का वही महत्त्व है।