मर्यादा बंध नहीं, मुक्ति का द्वार है
शासनश्री मुनि विजय कुमार
बंधन में रहना किसी को पसंद नहीं है। आज का आदमी खुलापन पसंद करता है। आदमी ही नहीं, पशु-पक्षी भी बंधन पसंद नहीं करते। एक तोता भले वह सोने के पिंजरे में रहता है किंतु खुली हवा में उड़ान भरना ज्यादा पसंद करता है। पिंजरा उसे कैदखाने जैसा लगता है। एक लोक कथा है कि कोई कौआ उड़ता-उड़ता चिड़ियाघर में आ गया, वहाँ पिंजरे में कैद एक बत्तख के पास आया और बोला-बत्तख भाई! तुम बड़े भाग्यशाली हो तुम्हारा पूरा शरीर सफेद है, मन को मोहने वाला है। बत्तख बोला-कौआ भाई! मेरे से ज्यादा भाग्यशाली तो तोता है जिसका शरीर मेरे से ज्यादा आभा बिखेर रहा है, उसके सिर और चौंच तो बड़ी निराली है। कौआ तोते से मिला और उसके मनमोहक रूप को देखकर उसके भाग्य की सराहना करने लगा। तोते ने कौए से कहा-तुम एक बार मोर को देख लो, उस जैसा रंग बिरंगा और आकर्षक रूप कहीं नजर नहीं आएगा, दुनिया में सबसे ज्यादा भाग्यशाली तो वह है। वह मोर के पास गया, उसके शरीर से सुंदरता टपक रही थी, वह उसके भाग्य के गुणगान करने लगा। मोर ने कौए को टोकते हुए कहा-मैं तो दुर्भागी हूँ जो इस कैदखाने में रहता हूँ। कौए ने जिज्ञासा की कि फिर कौन है पक्षियों में सबसे ज्यादा भाग्यशाली? मोर ने कहा-सबसे ज्यादा भाग्यशाली तू है जो खुले आकाश में उड़ान भरता है। वह कौआ उसके मुँह से अपनी प्रशंसा सुनकर सहम गया और काँव-काँव करता हुआ उड़कर वृक्ष की किसी डाली पर बैठ गया।
पक्षी ही नहीं, कोई भी प्राणी बंधन में रहना नहीं चाहता, हर व्यक्ति स्वतंत्र और अपने ढंग से जीना चाहता है। ऊपर का नियंत्रण वह पसंद नहीं करता, नियम और मर्यादाएँ उसे बंधन लगती हैं। रोक-टोक में रहने को वह गुलामी समझता है। एक छोटे बच्चे ने अपने पापा से कहा-पापा! मम्मी हर वक्त मेरे पर रोक-टोक करती रहती हे, मैं सुनता-सुनता तंग आ गया, यह रोक-टोक कब बंद करेगी? उसका पिता बोला-बेटा! इसकी रोक-टोक अभी तक मैं भी सुनता हूँ, तू तो अभी बच्चा है। छोटा बच्चा भी नियंत्रण में रहना नहीं चाहता।
इस स्वतंत्रता के युग में तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित होने वाला हर मुनि नियंत्रण को सहर्ष स्वीकार करता है। वह मर्यादा में रहने को गुलामी नहीं मानता। यही कारण है कि तेरापंथ में गुरु का अनुशासन शिष्य की प्रगति का द्वार बन जाता है। मर्यादाओं का सृजन करके स्वच्छंदाचार को समाप्त करने के लिए आचार्य भिक्षु ने एक जीवंत ब्रह्मास्त्र तैयार कर दिया। वे अध्यात्मयोगी ही नहीं, व्यवहारविद् भी थे। आने वाला समय कैसा होगा, उसकी नब्ज को उन्होंने पहचान लिया था। वे जिस संघ को छोड़कर आए थे वहाँ की स्थितियों का भी वे अध्ययन कर चुके थे। संघ को दीर्घजीवी और स्वस्थ रखने के लिए उन्होंने समय-समय पर मर्यादाओं का निर्माण किया। उन्होंने मर्यादा निर्माण के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा-शिष्य, वस्त्र और साताकारी क्षेत्र का ममत्व करके अनंत जीव अब तक नरक निगोद में चले गए, इसलिए शिष्य आदि की ममता मिटाने और चारित्र को निर्मल निरतिचार रखने के लिए मैंने ये मर्यादाएँ बनाई हैं। वि0सं0 1832 में उन्होंने सबसे पहला मर्यादा पत्र लिखा। भगवान् महावीर के समय 7 पदों की व्यवस्था थी, आचार्य भिक्षु ने पहली धारा बना दी, ‘सब साधु-साध्वियाँ एक आचार्य की आज्ञा में रहें’। पूर्ववर्ती संघ में विहार, चातुर्मास संत अपनी मनमर्जी से करते थे, उस पर रोक लगाते हुए दूसरी धारा बना दी कि ‘साधु-साध्वियाँ विहार-चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें’। शिष्य-शिष्याओं की खींचातान को मिटाने के लिए तीसरी धारा बना दी कि कोई भी अपना-अपना शिष्य-शिष्या न बनाए। साधु-साध्वियों की गुणवत्ता और तेजस्विता को महत्त्व देने के लिए चौथी धारा सर्वशक्तिसंपन्न आचार्य के लिए बना दी कि आचार्य भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें, दीक्षित करने पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दें। उत्तराधिकार को लेकर कोई समस्या खड़ी न हो इसके लिए पाँचवीं धारा बना दी कि आचार्य अपने गुरुभाई या शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियाँ सहर्ष स्वीकार करें। संघ की मजबूती के लिए आचार्य भिक्षु ने अपने जीवन काल में कई मर्यादाएँ बनाई। उनका लिखा हुआ अंतिम मर्यादा पत्र वि0सं0 1859 माघ शुक्ला सप्तमी, शनिवार का है। आचार्य का एक विशेषण होता है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के ज्ञाता। आचार्य भिक्षु का जीवन इसका मूर्तरूप है। वे जानते थे, भविष्य में समय और स्थितियों को देखकर आचार्य को मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन भी करना आवश्यक हो सकता है, इस दृष्टि से उन्होंने एक धारा बना दी कि आगे जब कभी भी आचार्य आवश्यक समझे तो वे इन मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन करे और आवश्यक समझे तो कोई नई मर्यादा करे। पूर्व मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन हो अथवा कोई नई मर्यादा का निर्माण हो, उसे सब साधु-साध्वियाँ सहर्ष स्वीकार करें। यह आचार्य भिक्षु की दूरदर्शी सोच का ही परिणाम है कि उन्होंने संघ को रूढ़िग्रस्त नहीं बनने दिया, नवीनता के लिए सदा द्वार खुले रखें।
तेरापंथ धर्मसंघ आज जिन ऊँचाइयों को छू रहा है, उसके पीछे एकमात्र कारण ये मर्यादाएँ हैं। मर्यादा की नींव पर खड़े इस तेरापंथ को कहीं तनिक भी खतरा नहीं है। व्यक्ति अपने जीवन की सुरक्षा चाहता है तो उसे मर्यादा को बहुमान देना चाहिए। जो बंधन मानकर मर्यादा की अवहेलना करता है वह स्वयं ही अवहेलना का पात्र बन जाता है। पदयात्रा करते समय सड़क की एक ओर गाड़ियों के लिए एक सुंदर वाक्य लिखा था-‘वेग मर्यादित, जीवन सुरक्षित’। इस वाक्य में एक प्रेरणा छिपी है कि व्यक्ति जीवन को सुरक्षित रखना चाहता है तो उसे मर्यादा में रहना चाहिए। रेलगाड़ी पटरी पर चलती है उसे कोई खतरा नहीं होता वह थोड़ी भी अगर इधर-उधर हो जाती है तो दुर्घटना घटित हो सकती है। नदी दो तटों के बीच में बहती है, बड़ी उपयोगी लगती है, उसमें भी जब बाढ़ आ जाती है, अपनी मर्यादा में नहीं रहती है तो वह प्रलयंकारी रूप धारण कर लेती है। इसी तरह सर्दी, गर्मी, वर्षा, हवा आदि प्राकृतिक स्थितियाँ भी मर्यादा के अनुरूप होती हैं तो लोगों को आरामदायक लगती है, सीमा तोड़ने पर ये भी परेशानी का कारण बन जाती है।
मर्यादा को भार नहीं, व्यक्ति गले का हार समझे। हार बंधन नहीं होता, वह व्यक्ति की शोभा बढ़ाने वाला होता है। मर्यादा को बंधन नहीं, मुक्ति का द्वार समझें। स्वतंत्रता वरदान है किंतु स्वच्छंद व्यक्ति के लिए वह अभिशाप है। हम स्वतंत्र बनना चाहते हैं तो मर्यादा को जीवन में बहुमान दें। हम भाग्यशाली हैं, जिन्हें आचार्य भिक्षु द्वारा मर्यादाओं का मंत्र मिला। चतुर्थ आचार्य श्रीमद् जयाचार्य ने उन मर्यादाओं को महोत्सव का रूप दे दिया। हर वर्ष माघ शुक्ला सप्तमी को वह महोत्सव वर्तमान आचार्य की सन्निधि में आयोजित होता है। मर्यादा का महोत्सव अमर रहे, हम सदा यह मंगलकामना करते हैं।