संबोधि

स्वाध्याय

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बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
 
बारह भावनाएँ
(पिछला शेष)  इन श्लोकों में सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के लक्षणों का निरूपण किया गया है। वे पाँच हैं-
(1) आस्तिक्य-आत्मा, कर्म आदि में विश्वास।
(2) शम-क्रोध आदि कषायों का उपशमन।
(3) संवेग-मोक्ष के प्रति तीव्र अभिरुचि।
(4) निर्वेद-वैराग्य। उसके तीन प्रकार हैं-संसार-वैराग्य, शरीर-वैराग्य और भोग-वैराग्य।
(5) अनुकंपा-कृप भाव, सर्वभूतमैत्री-आत्मौपम्य भाव। प्राणीमात्र के प्रति अनुकंपा।
अहिंसा दया का पर्यायवाची नाम है। पंचाध्यायी में इसका बड़ा सुंदर विश्लेषण किया है। उसमें कहा है-‘जो समग्र प्राणियों के प्रति अनुग्रह है, उस अनुकंपा को दया जानना चाहिए। मैत्रीभाव, मध्यस्थता, शल्य-वर्जन और वैर-वर्जन ये अनुकंपा के अंतर्गत हैं। इससे दया का विशद स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है। जिस दया में किसी का भी उत्पीड़न नहीं होता, वस्तुतः वही सच्ची अनुकंपा है, दया है।
गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-‘भंते! दर्शन-संपन्नता का क्या लाभ है?’ भगवान् ने कहा-‘गौतम! दर्शन-संपन्नता से विपरीत दर्शन का अंत होता है। दर्शन-संपन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं। वह अनुत्तरज्ञान से आत्मा को भावित करता रहता है। यह आध्यात्मिक फल है। व्यावहारिक फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी गति का आयुष्य नहीं बाँधता।’
 
(80) योगी व्रतेन संपन्नो, न लोकस्यैषणा×चरेत्।
भावशुद्धिः क्रियाश्चापि, प्रथयन् शिवमश्नुते।।
व्रतों से संपन्न योगी लोकैषणा में नहीं फँसता। वह मानसिक शुद्धि और सत्क्रियाओं का विस्तार करता हुआ मोक्ष को प्राप्त होता है।
 
(81) न क्षीयन्ते न वर्धन्ते, सन्ति जीवा अवस्थिताः।
अजीवो जीवतां नैति, न जीवो यात्यजीवताम्।।
जीव अवस्थित हैं, न घटते हैं और न बढ़ते हैं। अजीव कभी जीव नहीं बनता और जीव कभी अजीव नहीं बनता।
 
(82) अवस्थानमिदं ध्रौव्यं, द्रव्यमित्यभिधीयते।
पिरवर्तनमत्रैव, पर्यायः परिकीर्तितः।।
अवस्थान को ध्रौव्य कहा जाता है और इसी में जो परिवर्तन होता है, उसे पर्याय कहा जाता है। ध्रौव्य और परिवर्तन-दोनों द्रव्य के अंश हैं। द्रव्य का अर्थ है-इन दोनों की समष्टि।
एक बार गौतम ने पूछा-‘भगवन्! तत्त्व क्या है?’ भगवन् ने कहा-‘उत्पाद तत्त्व हैं।’ गौतम की समस्या सुलझी नहीं। उन्होंने फिर पूछा-‘भगवन्! तत्त्व क्या है?’ भगवन् ने कहा-‘विनाश तत्त्व है।’ अभी भी मन समाहित नहीं हुआ। तीसरी बार गौतम ने पूछा-‘भगवन्! तत्त्व क्या है?’ भगवान् ने कहा-‘ध्रुव तत्त्व है।’
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-यह तत्त्व-त्रयी है। गौतम गणधर ने इसी के आधार पर वाङ्मय का विस्तार किया था। उत्पाद और व्यय प्रत्येक चेतन और जड़ दोनों पदार्थों की अवस्थाएँ हैं। जड़ और चेतन दोनों ध्रुव हैं। जड़ चेतन नहीं होता और चेतन जड़ नहीं होता। अवस्थाओं का परिवर्तन इन दोनों में सतत चालू रहता है। चेतन एक अवस्था को छोड़कर अन्य अवस्था में जाता है। यह आत्मा की अमरता है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-‘पुराने कपड़े के फट जाने पर जिस प्रकार नया कपड़ा धारण किया जाता है, ऐसी प्रकार आत्मा भी अपनी वर्तमान जीर्ण स्थिति को त्यागकर नया रूप स्वीकार करती है। कभी देवत्व, कभी पशुत्व, कभी नारकीय, कभी मानवीय आकार में आत्मा का परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से युवक और युवक से बूढ़ा बन मृत्यु का आलिंगन करती है। इन सबमें आत्मा विद्यमान रहती है। ये उनकी विभिन्न अवस्थाएँ हैं। चेतनत्व का विनाश नहीं होता। (क्रमशः)