श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

जीवनवृत्त: कुछ चित्र, कुछ रेखाएँ

‘इच्छा और क्या हो सकती है? विवाह करना है। तुम बताओ, किसके साथ करना उचित होगा?’
‘इस विषय में आप मुझसे ज्यादा जानते हैं, फिर मैं क्या बताऊँ?’
‘कन्या पर माता का अधिकार अधिक होता है, इसलिए इस पर तुमने जो सोचा है, वह बताओ।’
‘क्या मैं अपनी भावना आपके सामने रखूँ जो अब तक मन में पलती रही है?’
‘मैं अवश्य जानना चाहूँगा।’
‘कुमार वर्द्धमान बहुत यशस्त्री, मनस्वी और सुंदर हैं। मैं उनके साथ यशोदा का परिणय चाहती हूँ।’
‘मेरी भी यही इच्छा है, सद्यस्क नहीं किंतु दीर्घकालिक। मैं तुम्हारी भावना जानकर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हम बाहर से ही एक नहीं हैं, भीतर से भी एक हैं।’
जितशत्रु ने दूत भेजकर अपना संदेश सिद्धार्थ तक पहुँचा दिया।
सिद्धार्थ और त्रिशला-दोनों को इस प्रस्ताव से प्रसन्नता हुई। उन्होंने इसे कुमार के सामने रखा। कुमार ने उसे स्वीकार कर दिया। वे बचपन से ही अनासक्त थे। वे ब्रह्मचारी जीवन जीना चाहते थे।
माता-पिता ने विवाह करने के लिए बहुत आग्रह किया। वे माता-पिता का बहुत सम्मान करते थे और माता-पिता का उनके प्रति प्रगाढ़ स्नेह था। वे एक दिन भी वर्द्धमान से विलग रहना पसंद नहीं करते थे। वर्द्धमान को इस स्नेह की स्पष्ट अनुभूति थी। इसी आधार पर उन्होंने संकल्प किया था ‘माता-पिता के जीवनकाल में मैं मुनि नहीं बनूँगा।’
वर्द्धमान में मुनि बनने की भावना और क्षमता-दोनों थी। ब्रह्मचर्य उनका प्रिय विषय था। इसे वे बहुत महत्त्व देते थे। यह उनके ब्रह्मचर्य को प्रतिष्ठा देने के भावी प्रयत्नों से ज्ञात होता है।
मुक्ति का अंतर्द्वन्द्व
कुछ लोग जानते हुए भी सोते हैं और कुछ लोग सोते हुए भी जागते हैं। जिनका अंतःकरण सुप्त होता है, वे जागते हुए भी सोते हैं। जिनका अंतःकरण जागृत होता है, वे सोते हुए भी
जागते हैं।
कुमार वर्द्धमान सतत जागृति की कक्षा में पहुँच चुके थे। गर्भकाल में ही उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध था। उनका अंतःकरण निसर्ग चेतना के आलोक से आलोकित था। भोग और ऐश्वर्य उनके पीछे-पीछे चल रहे थे, पर वे उनके पीछे नहीं चल रहे थे।
एक दिन कुमार वर्द्धमान आत्म-चिंतन में लीन थे। उनका निर्मल चित्त अंतर की गहराई में निमग्न हो रहा था। वे स्थूल की परतों को पार कर सूक्ष्म लोक में चले गए। उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। उन्होंने देखा, जीवन की शंृखला कहीं विच्छिन्न नहीं है। अतीत के अनंत में सर्वत्र उसके पद्चिÐ अंकित हैं।
अतीत की कुछ घटनाओं ने कुमार के मन पर बहुत असर डाला। कुछ समय के लिए वे चिंतन की गहराई में खो गए।
दर्पण में प्रतिबिंब की भाँति अतीत उनकी आँखों के सामने उतर आया-‘मैं त्रिपृष्ठ नाम का वासुदेव था। एक रात्रि को रंगशाला में नृत्यवाद्य का आयोजन हुआ। मैं और मेरे सभासद् उसमें उपस्थित थे। मैंने अपने अंगरक्षक को कहा, ‘मुझे नींद न आए तब तक यह आयोजन चलाना। मुझे नींद आने लगे तब इसे बंद कर देना।’ उस दिन मैं बहुत व्यस्त रहा। दिन भर के कार्यक्रम से थका हुआ था। रात्रि की ठंडी वेला। मनोहर नृत्य, लुभाने वाला वाद्य-गीत। समय, नर्तक, गायक और वादक का ऐसा दुर्लभ योग मिला कि सबका मन प्रफुल्लित हो उठा। लोग उस कार्यक्रम में तन्मय हो गए। वे कालातीत स्थिति का अनुभव करने लगे। मुझे नींद का अनुकूल वातावरण मिला। मैं थोड़े समय में ही निद्रालीन हो गया। आयोजन चलता रहा।
गहरी नींद के बाद मैं जागा। मेरे जागने के साथ मेरा अहं भी जागा। मैंने अंगरक्षक से पूछा, ‘क्या मेरी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं हुआ है?’ वह कुछ उत्तर न दे सका। वह नृत्य और वाद्य-गीत में इतना खोया हुआ था कि उसे मेरी नींद और मेरे जागने का कोई भान ही नहीं रहा। मैं आज्ञा के उल्लंघन से तिलमिला उठा। मेरा क्रोध सीमा पार कर गया। मैंने आरक्षीवर्ग के द्वारा उसके कानों में गर्म सीसा डलवाया। मेरी हिंसा उसके प्राण लेकर ही शांत हुई।
(क्रमशः)