एक पन्ने के ‘लिखत’ ने ला दिया क्रांतिकारी परिवर्तन

एक पन्ने के ‘लिखत’ ने ला दिया क्रांतिकारी परिवर्तन

मर्यादा महोत्सव का आधार
मर्यादा महोत्सव का आधार है-आचार्य भिक्षु द्वारा निर्मित मर्यादा पत्र, जिसके आधार पर सदियों से मर्यादा महोत्सव मनाया जा रहा है। जिसके आधार पर तेरापंथ धर्मसंघ का संगठन चल रहा है और जिसके आधार पर एक नेतृत्व में सैकड़ों-सैकड़ों साधु-साध्वियाँ और लाखों श्रावक एक डोर से बंधे हुए हैं। पन्ने कमजोर हैं, स्याही भी जैसी उपलब्ध थी, वैसी ही है, लेकिन एक-एक अक्षर सबके लिए शिरोधार्य हो रहा है। इस एक पन्ने के ‘लिखत’ ने धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में प्रचलित मान्यताओं और परंपराओं में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया।
मर्यादा की मर्यादा।
एक होती है मर्यादा और दूसरी होती है मर्यादा की मर्यादा। सब मर्यादाओं का पालन कराने वाली मर्यादा यह है कि एक आचार्य का नेतृत्व हो। मर्यादा की अनुपालना वही करवा सकता है, जो पूरे धर्मसंघ को एक साथ लेकर चलता है। पहले परंपरा यह थी कि साधु अपनी इच्छा से दीक्षा देते, सब अपना-अपना अलग-अलग शिष्य बनाते। आचार्य भिक्षु ने पहली बार यह परंपरा तोड़ी। उन्होंने विधान किया-‘दीक्षा देने के अधिकारी केवल आचार्य हैं। साधु अगर दीक्षा दे तो आचार्य की आज्ञा से आचार्य के नाम पर दे। दीक्षा देने के बाद उसे आचार्य को लाकर सौंप दे। आचार्य भिक्षु ने इस बात को अच्छी तरह से समझ लिया था कि संगठन को तोड़ने वाले दो प्रमुख तत्त्व हैं-अहंकार और ममकार। अहं प्रबल होता है तो संगठन चल नहीं सकता। उसका विखंडन होना अवश्यंभावी है। इसी तरह ममकार या मेरापन भी संगठन को चलाने में बाधक बनता है। अहंकार और ममकार का विसर्जन हो, तभी संघ सुचारु रूप से चल सकता है।
आचार्य भिक्षु ने लिखा-सगला रे सगला साध रे साधवी राखज्यो हेत विसेख। सभी साधु-साध्वियाँ परस्पर में सौहार्द रखें। इसी तरह उन्होंने स्थान-स्थान पर लिखा कि आचार्य किसी को आगे लाएँ तो कोई ईर्ष्या न करे। इसी को व्याख्यायित करते हुए जयाचार्य ने लिखा-‘आचार्य किसी को योग्य समझकर उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते हैं, तो कोई उससे ईर्ष्या न करे।’
श्रेष्ठ कौन?
महान सूफी संत रज्जब से किसी ने कहा-‘यह कुत्ता सामने बैठा है। आप बताएँ कि आप श्रेष्ठ हैं या यह कुत्ता?’
उन्होंने कहा-‘जब तक परोपकार की भावना है, ईर्ष्या मन में नहीं है, मैं इस कुत्ते से बेहतर हूँ, श्रेष्ठ हूँ। अगर परोपकार की भावना नहीं रही, मन में ईर्ष्या समा गई तो यह कुत्ता मुझसे कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है।’ यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। संगठन चलता है प्रमोद भावना से। पक्षपात किसी व्यक्ति का नहीं, गुणों के प्रति होना चाहिए। जिस संगठन में परस्पर द्वेष, ईर्ष्या, मलिनता का व्यवहार होता है, परस्परता का व्यवहार नहीं होता, वह ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाता। इस पत्र में आचार्य भिक्षु ने संगठन को चिरंजीवी बनाने वाले ऐसे-ऐसे आधारभूत सूत्रों को लिखा, जिनके आधार पर आज ढ़ाई सौ वर्ष से तेरापंथ चल रहा है, विकासवान बना हुआ है, निरंतर प्रवर्धमान है।
इस दुनिया में अनेक तरह के महोत्सव मनाए जा रहे हैं। ऐसा कोई दिन शायद ही जाता होगा, जब कोई उत्सव या महोत्सव का आयोजन कहीं न कहीं हो रहा हो, लेकिन मर्यादा और अनुशासन का महोत्सव मनाने वाला एकमात्र तेरापंथ धर्मसंघ है। पूरे राष्ट्र और समाज को आज अगर सबसे ज्यादा जरूरत किसी चीज की है तो वह मर्यादा और अनुशासन है। इसके अभाव में समाज और राष्ट्र में कैसी-कैसी समस्याएँ खड़ी हो रही हैं, सब जानते हैं। मर्यादा और अनुशासन की कमी ने समाज और राष्ट्र की व्यवस्था को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मर्यादा और अनुशासन की कमी ने परिवारों को विखंडित किया है। इसके अभाव में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं।
मर्यादा का आधार
संगठन कब चलता है? अनुशासन कब सफल होता है? मर्यादा का आधार क्या है?
मर्यादा का पहला अधार है-इच्छा का समर्पण। जब तक व्यक्ति अपनी इच्छा को महत्त्व देता है, वह संगठन का अंग बनकर नहीं रह सकता। संगठन पहले, मेरी इच्छा बाद में, जहाँ यह भावना होती है, वहाँ संगठन निर्बाध रूप से आगे बढ़ना है।
दूसरी बात सामुदायिक चेतना का जागरण। व्यक्तिवाद संगठन के लिए जहर की तरह है। व्यक्तिवाद तो स्वार्थ के आधार पर चलता है। हर बात में मतभेद है तो समझ लें कि स्वार्थ हावी है।
तीसरी बात है-व्यवस्था और प्रबंधन। जिस संगठन में व्यवस्था और प्रबंधन अच्छा होता है, वहाँ मर्यादा और अनुशासन सुचारु रूप से चलता है। मर्यादा का आधार है व्यवस्था। हमारे धर्मसंघ में आचार्यों ने व्यवस्था और प्रबंधन पर बहुत ध्यान दिया। मैनेजमेंट का शिक्षण-प्रशिक्षण जो आज शुरू हुआ है, वह हमारे धर्मसंघ में ढाई सौ वर्ष पहले शुरू हो गया था। हमारे यहाँ तो सारा काम ही व्यवस्था के साथ होता है। किसको कहाँ जाना है, कहाँ रहना है, क्या-क्या करना है, किस तरीके से करना है, इसकी पूरी व्यवस्था रहती है। इसीलिए हमारे यहाँ अराजकता की स्थित कभी देखने को नहीं मिलती।
चौथी बात है-जागरूकता। हमारे यहाँ इस पर सबसे अधिक बल दिया गया। सब अपने दायित्व और कर्तव्य के प्रति जागरूक रहें। जयाचार्य ने व्यवस्था दी कि कोई भी साधु-साध्वी का सिंघाड़ा न्यारा से विहार करके आए तो आचार्य का काम है पृच्छा करना। उन्हें आचार्य को पूरी रिपोर्ट देनी पड़ती है कि पृथक् विहार और प्रवास के दौरान कहाँ-कहाँ गए और क्या-क्या किया। पूरे वर्ष भर का हिसाब देना पड़ता है। इसे हम अपनी भाषा में ‘वार्षिक विवरण’ कहते हैं।
पाँचवीं बात है-समय का नियोजन। मर्यादा के लिए जरूरी है समय का नियोजन। जहाँ समय का नियोजन होता है, वहाँ जागरूकता रहती है। जहाँ समय का नियोजन है, वहाँ व्यवस्था रहती है, सामुदायिक भावना रहती है। समय का नियोजन तभी होता है, जब इच्छा का समर्पण होता है, जो समय का मूल्य नहीं आँकता, वह जीवन में कभी न तो कोई बड़ा काम कर सकता है, न ही अपने जीवन में प्रगति कर सकता है। वह हमेशा अफरा-तफरी का जीवन जिएगा, जिंदगी भर अस्त-व्यस्त रहेगा।
जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं का दास बना रहता है, उससे समय का नियोजन नहीं हो सकता। जागरूकता की कसौटी है समय का नियोजन। जिसका कषाय मंद है, जो गुणानुरागी और गुणग्राही है और योग्यता को महत्त्व देता है, वही व्यक्ति जागरूक कहा जाएगा।
इससे भी महत्त्व की बात यह है कि अनुशासन और मर्यादा की संहिता बनाना। दूसरी बात उसका प्रशिक्षण देना है। प्रशिक्षण के बिना कोरा वाचिक उपदेश कारगर नहीं होता। प्रशिक्षण के द्वारा जो बात समझाई जाती है, वह हमारे भीतर बहुत गहरे तक उतर जाती है। विज्ञान की भाषा में कहें तो वह बात हमारे अवचेतन मन तक पहुँच जाती है। इसी अवचेतन मन में सारा निर्माय होता है। इसलिए प्रशिक्षण बहुत जरूरी है।
आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्य तुलसी तक हमारे पूर्वाचार्यों ने जो प्रशिक्षण दिया हमारे धर्मसंघ में उसका अभी तक संकलन नहीं हुआ है। अगर संकलन हो तो प्रशिक्षण के सैकड़ों सूत्र हमें मिल जाएँगे। मैं प्रशिक्षण सूत्रों में से केवल एक ही चर्चा करना चाहूँगा जो सबसे जटिल बात है, वह है प्रकृति-सुधार का प्रशिक्षण। आदमी आकृति से तो बहुत सुंदर मिल जाएगा। सुंदर लोगों की कोई कमी नहीं है, लेकिन प्रकृति से सुंदर कितने लोग मिलते हैं? इसीलिए कहा गया कि प्रकृति या स्वभाव का सुधार करो। हमारे यहाँ आचार्यों ने प्रकृति सुधार का प्रशिक्षण दिया, जो सबसे कठिन और जटिल प्रशिक्षण है।
प्राचीनकाल में एक नौली होती थी, जिसमें सौ रुपये होते थे। जयाचार्य ने लिखा-‘जिस व्यक्ति की प्रकृति अच्छी है, उसकी नौली में समझो निन्यानवे रुपये हैं, मात्र एक रुपया पढ़ाई का बाकी है।’ आप इस बात के हार्द को समझें कि निन्यानवे रुपये तो प्रकृति के साथ आते हैं, एक रुपया होता है पढ़ाई-लिखाई का। आज के हालात से तुलना करें तो पाएँगे कि निन्यानवे रुपये तो हैं पढ़ाई के ओर एक रुपया या उससे भी कम है प्रकृति या स्वभाव का। जयाचार्य ने ‘खोड़ीली प्रकृति’ और ‘चोखी प्रकृति’ के रूप में स्वभाव का विभाजन या वर्गीकरण किया है। इस तरह प्रकृति या स्वभाव का विश्लेषण करते हुए उसका जो प्रशिक्षण जयाचार्य, आचार्य तुलसी आदि आचार्यों ने दिया है, मानता हूँ कि वह संगठन का मूल आधार बन रहा है।
एक आधार है प्रमोद भावना
प्रमोद भावना का भी प्रशिक्षण हमारे संघ में दिया जाता है। जिस संगठन के सदस्यों में प्रमोद भावना नहीं होती, जहाँ योग्यता का मूल्यांकन और सम्मान नहीं होता और जिस संघ में पूर्वाचार्यों द्वारा दिए गए अवदानों का सम्मान नहीं होता, वह संगठन और उस संगठन के सदस्य संघ में बाधा पहुँचाने वाले और संघ की जड़ काटने वाले होते हैं। प्रमोद भावना का मतलब है एक-दूसरे के प्रति हर्ष की भावना। आज हर क्षेत्र में इसकी कमी साफ देखी जा सकती है। बहुत जरूरी है प्रमोद भावना का विकास।
आचार्य भिक्षु ने संघ की सुरक्षा और व्यवस्था के लिए चिंतन किया और जो मर्यादा-व्यवस्था के सूत्र दिए, वे सर्वकालिक हैं। आज की स्थिति में भी बहुत कार्यकारी हैं, बल्कि यह कहें कि पहले से भी ज्यादा समीचीन हैं, उनकी मूल्यवत्ता कभी कम नहीं होगी।