मर्यादा एक प्रहरी
आचार्य तुलसी
तेरापंथ विकासोन्मुख धर्मसंघ है, इसका एकमात्र कारण इसकी गौरवशाली मर्यादाएँ ही हैं। सामान्यतः मर्यादा को बंधन माना जाता है। इस संदर्भ में दो प्रश्न उपस्थित होते हैं। पहला प्रश्न होता है कि साधु-जीवन स्वतः मर्यादित जीवन है। इसमें पंचमहाव्रत का पालन अनिवार्य है। फिर ऊपर की मर्यादाएँ क्यों? दूसरा प्रश्न होता है कि साधुत्व स्वीकार करने का अर्थ है बंधन-मुक्ति। साधुत्व में भी यदि बंधन है तो फिर मुक्ति कहाँ होगी?
वस्तुस्थिति यह है कि मर्यादाएँ बंधन नहीं हैं, व्यवस्था हैं। ये स्वेच्छा से स्वीकृत हैं, बलात् थोपी हुई नहीं। मर्यादाओं का पालन तब तक अनिवार्य है, जब तक कल्पातीत अवस्था प्राप्त न हो जाए। मर्यादाएँ एक प्रहरी के समान होती हैं। जब कभी साधक के मार्ग च्युत होने की संभावना होती है, मर्यादाएँ पुनः उसे सन्मार्ग पर बढ़ने के लिए सजग कर देती हैं। मर्यादाएँ उस सीमा-रेखा के समान हैं, जो अवांछनीय पथ पर जाने से रोकती है।
आचार्य भिक्षु ने शास्त्रीय मर्यादाओं के पालन के साथ-साथ संघीय मर्यादाओं के पालन की भी अनिवार्यता बताई। किसी भी धर्मसंघ में पनपने वाली मर्यादाहीनता, अनुशासनहीनता, अव्यवस्था और उच्छृंखलता का क्या परिणाम आता है, इस बात से आचार्य भिक्षु भली-भाँति परिचित थे। इसलिए वे एक ऐसे धर्मसंघ की स्थापना करना चाहते थे, जिसकी नींव प्राणवान एवं मौलिक मर्यादाओं पर प्रतिष्ठित हो। आचार्य भिक्षु की सूझबूझ का ही परिणाम है कि शताब्दियों के बाद भी यह धर्मसंघ अपनी मर्यादाओं व व्यवस्थाओं के कारण एक आदरास्पद और गौरवशाली धर्मसंघ बना हुआ है।
मानसिक प्रसत्ति
यह शासन एक उपवन है। उपवन में विभिन्न तरह के फूल खिलते हैं और उनसे उपवन की शोभा होती है। संघ में भी विभिन्न प्रकृति के साधु होते हैं। उन सबके साथ शांति व समाधि से रहना एक बहुत बड़ी साधना है।
संघ के हर सदस्य की अपेक्षा की पूर्ति करने के लिए आचार्य तो जिम्मेदार हैं ही, संघ की हर इकाई को भी इस दृष्टि से जागरूक एवं तत्पर रहना चाहिए। जिसे सेवा की अपेक्षा है, उसे सेवा दी जाए, जिसे सहयोग की अपेक्षा है, उसे सहयोग दिया जाए, जिसे विद्या की अपेक्षा है, उसे विद्या दी जाए। संघीय भावना को पुष्ट करने वाली इन बातों में यदि कहीं कमी प्रतीत हो तो उसे तत्काल दूर करने का प्रयत्न होना चाहिए।
मानसिक दृष्टि से संघ के हर सदस्य को प्रसन्न रहना चाहिए। मानसिक प्रसत्ति के अभाव में यथार्थ चिंतन की शक्ति भी समाप्त हो जाती है।
भीष्ण पितामह शर-शय्या पर लेटे हुए मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। पांडव और कौरव उनके पास बैठे थे। भीष्म पितामह ने इस अंतिम समय में सबको शिक्षा देनी प्रारंभ की।
उन्होंने धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप एवं कर्तव्य की सम्यक् व्याख्या के साथ दुष्प्रवृत्तियों से बचने की सक्रिय प्रेरणा दी। द्रौपदी भी वहाँ उपस्थित थी। यह उपदेश सुनकर वह अपनी हँसी न रोक सकी।
भीष्म पितामह ने कहा-‘बेटी! मैं तुम्हारी हँसी का कारण जानना चाहता हूँ।’
द्रौपदी कुछ सहमी। बात टालते हुए उसने कहा-‘पितामह! हँसी तो मुझे यों ही आ गई।’
भीष्म पितामह के दूसरी बार आग्रह करने पर द्रौपदी ने बताया-‘आज आप सबको धर्म का उपदेश दे रहे हैं पर जिस समय भरी सभा में मेरा चीरहरण हो रहा था, आप मौन कैसे हो गए थे? आपका धर्म-कर्म का उपदेश कहाँ चला गया था? बस, इसी बात पर मुझे हँसी आ गई। इस धृष्टता के लिए क्षमा करें।’
पितामह ने गंभीर स्वर में संबोधित करते हुए कहा-‘बेटी! तुम्हारा कथन बिलकुल सत्य है पर तुम जानती हो, उस समय मैं कौरवों का अन्न खा रहा था। उससे मेरे शरीर की समस्त धातुएँ विकृत हो चुकी थीं। शरीर की धातुओं को ही नहीं, विकृत घर के अन्न ने मेरे मन को भी विकृत बना दिया था। विकृत स्वर और विकृत मन से मैं धर्म की बात कैसे सोच सकता था?’
‘पर आज भी शरीर तो वही है, मन भी वही है फिर यह उपदेश कैसा?’-द्रौपदी ने प्रतिप्रश्न किया।
‘हाँ बेटी! शरीर तो वही है, मन भी वही है पर अर्जुन के बाणों ने मेरे सारे विकृत खून को बाहर निकाल दिया है, इसलिए मैं शरीर और मन दोनों स्तरों पर विकृतिरहित हो गया हूँ। परिणामतः धर्म का उपदेश करने की शक्ति मुझमें आ गई।’
इस घटना के माध्यम से मैं यह कहना चाहता हूँ कि किसी कारणवश किसी का मन दूषित हो गया हो तो मर्यादाएँ ऐसे तीरों का काम करें, जो
उसके मन, वचन व कर्म को पुनः स्वस्थ बना सकें।