श्रवण शक्ति का समुचित उपयोग कर करें श्रेय का समाचरण: आचार्यश्री महाश्रमण
वाशी, 18 फरवरी, 2024
युगप्रधान अणुव्रत अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित जनमेदिनी को संबोधित करते हुए फरमाया कि ज्ञान का एक साधन हैµसुनना। सुनने का साधन है कान। हमारी पाँचों इंद्रियों में ज्ञान को प्राप्त करने में संभवतः श्रोत्र और चक्षु इन दो इंद्रियों का बड़ा योगदान होता है। अन्य इंद्रियों से भी ज्ञान होता है। जैसेµघ्राणेन्द्रिय से गंध का ज्ञान, रसनेंद्रिय से रस का बोध और स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान होता है। इन तीनों इंद्रियों का भी योगदान है। परंतु सुनकर के जो जानकारियाँ प्राप्त होती हैं और देखने से जो ज्ञान होता है, उतना ज्ञान शेष तीन इंद्रियों से उस रूप में संभवतः नहीं होता है।
साधु का प्रवचन अनेक श्रोता सुन सकते हैं। मनुष्य के अलावा दिव्य शक्तियाँ, तिर्यंच प्राणी भी प्रवचन सुन सकते हैं। श्रवण शक्ति जब तक सुनने के लायक है तब तक उसका समुचित उपयोग कर लेना चाहिए। आदमी सुनकर कल्याण को जान लेता है और पाप को भी जान लेता है। जान कर पाप से बचने का प्रयास करें। कल्याण और पाप दोनों को आदमी सुनकर जानता है, फिर जो श्रेय है, अच्छा है, उसका समाचरण करना चाहिए। सुनने के लाभ को बताते हुए पूज्यप्रवर ने आगे फरमाया कि श्रोता का श्रोतृत्व तभी सार्थक है जब कोई बोलने वाला वक्ता मिले। अच्छे वक्ता का अपना महत्त्व है तो अच्छे श्रोता का भी महत्त्व है।
‘कैसे बोलना?’ यह एक कला है तो ‘कैसे सुनना?’ यह भी एक कला हो सकती है। सुनने की कला का एक सूत्र है कि श्रोता सुनने के समय मौन रखे, बीच में नहीं बोले। दूसरा सूत्र है कि श्रोता में सुनने की उत्सुकता होनी चाहिए। तीसरी बात है कि सुनने के साथ समीक्षा बुद्धि होनी चाहिए। चौथा लक्षण है कि अच्छी बातें सुनने को मिलें तो उसे हृदयंगम करें, अच्छी सामग्री का संग्रहण करें और उन्हें सुरक्षित रखने का प्रयास करें। हम अच्छे श्रोता बनेंगे तो हमारा सुनना सार्थक हो सकेगा।
अणुव्रत अमृत महोत्सव के संदर्भ में अणुव्रत अनुशास्ता ने गीत का संगान करवाया। समणी चैतन्यप्रज्ञा जी द्वारा संकलित व जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘कॉन्सियशनेस इन साइंस एंड जैन फिलोसफी’ को जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों ने आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया। इस संदर्भ में समणी चैतन्यप्रज्ञा जी ने अपनी प्रस्तुति दी। आचार्यश्री ने उन्हें पावन आशीर्वाद प्रदान करते हुए फरमाया कि इस पुस्तक में विज्ञान और दर्शन की बात है। दर्शन का अपना महत्त्व होता है, विज्ञान का अपना महत्त्व होता है। ये साइंस और फिलोसॉफी के संदर्भ में चर्चा, दोनों एक-दूसरे के सहयोगी बनें।
आज सूचना प्राप्त हुई कि दिगंबर परंपरा के आचार्य विद्यासागर जी का महाप्रयाण छत्तीसगढ़ में हो गया। आचार्य विद्यासागर जी दिगंबर समाज में ख्यातनामा, प्रसिद्ध और चिंतनशील व्यक्तित्व थे। मेरा मिलना तो साक्षात् उनसे नहीं हुआ पर कभी-कभी उनका फोटो किताब आदि में जरूर देखा होगा। उनका देहावसान हो गया। उनकी आत्मा के प्रति हमारी आध्यात्मिक मंगलकामना है कि उनकी आत्मा मोक्षश्री का शीघ्र वरण करे और उनके अनुयायी अध्यात्म पथ पर आगे बढ़ते रहें न्यू जर्सी से समागत सुरेंद्र कांकरिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। ज्ञानशाला, वाशी के ज्ञानार्थियों ने प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।