संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
 
मेघः प्राह
 
(86) आवृतं जायते चित्तं, ज्ञानावरणयोगतः।
हतं स्यादन्तरायेण, मूढं मोहेन जायते।।
 
भगवान् ने कहा-चित्त ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत्त होता है, अंतराय कर्म से प्रतिहत होता है और मोह कर्म से मूढ़ बनता है।
भगवान् महावीर की दृष्टि में ज्ञानावरणीय, अंतराय और मोहनीय-ये तीन कर्म बाधक हैं। ज्ञान पर जो आवरण है, वह ज्ञानावरणीय है, आत्मा को जानने में यह बाधा डालता है। जब यह हट जाता है तब ज्ञान का क्षेत्र व्यापक बन जाता है। आत्म-विकास में विघ्न डालने वाला कर्म अंतराय है। वह आत्म-शक्ति के अजò òोत को रोकता है। मनुष्य यथार्थ को जानता हुआ भी उसमें उद्योग नहीं करता। यथार्थ के प्रति श्रद्धाशील न होना और न उसको स्वीकार करना-यह मोहनीय कर्म की देन है। मोहोदय से मनुष्य भौतिक आकर्षणों में फँसा रहता है। सत्य के प्रति न उसकी अभिरुचि होती है, न वह सत्य का आचरण ही करता है। किंतु उल्टा इसे अपनी शांति में बाधक मानता है। यह मूढ़ता मोहजन्य है।
 
(87) स्वसम्मत्याऽपि विज्ञान, धर्मसारं निशम्य वा।
मतिमान् मानवो नूनं, प्रत्याचक्षीत पापकम्।।
बुद्धिमान् मनुष्य धर्म के सार को अपनी सहज बुद्धि से जानकर या सुनकर पाप का प्रत्याख्यान करे।
बुद्ध ने कहा-भिक्षुओ! मैं आदरणीय, श्रद्धेय और सम्मानीय हूँ, इसलिए मेरी वाणी को स्वीकार मत करो, किंतु अपनी मेधा-बुद्धि से परीक्षण करके स्वीकार करो-‘परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं, मद्वचो न तु गौरवात्।’ महावीर भी यही कहते हैं-अपनी बुद्धि से परखे-‘मइमं पास।’ और भी आत्मद्रष्टा ऋषियों का यही स्वर है। मुहम्मद ने कहा है-‘सब जगह मुझे ही प्रमाण मत मानो।’ किंतु व्यवहार में यह कम ही होता है। मनुष्य की बुद्धि कुछ परिपक्व होती है। उससे पूर्व ही वह धर्म को पकड़ लेता है। जन्म के साथ धर्म का जन्म होना देखा जाता है। कहते हैं-दुनिया में हजारों मत-मतांतर हैं। प्रायः व्यक्ति अपनी सीमा में खड़े मिलते हैं। हिंदु, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख आदि का चोला जन्म के साथ धारण हो जाता है।
मनुष्य में धर्म की भूख-जिज्ञासा पैदा ही नहीं होती। उससे पूर्व धर्म का भोजन उसे प्राप्त हो जाता है। सत्य का मार्ग उद्घाटित नहीं होता। सत्य की प्यास पैदा होना कठिन है और प्यार पैदा हो जाए जो फिर पानी मिलना सरल नहीं है। जीसस ने कहा है-धन्य हैं वे जिन्हें धर्म की भूख है क्योंकि उनकी भूख तृप्त हो जाएगी। सबसे पहले यह अपेक्षित है कि व्यक्ति में धर्म की भूख जागृत हो। पाप कर्म से निवृत्त होना कठिन नहीं है जितना कि धर्म की भूख का जागरण होना है। अर्जुनमाली, अंगुलिमान, वाल्मिकी आदि प्रसिद्ध हैं जिनको धर्म की प्यास पैदा होते ही मार्ग मिला और उनके पास छूटते चले गए।
 
(88) उपायान् संविजानीयाद्, आयुः क्षेमस्य चात्मनः।
क्षिप्रमेव यतिस्तेषां, शिक्षां शिक्षेत पंडितः।।
संयमशील पंडित अपने जीवन के कल्याणकर उपायों को जाने और उनका शीघ्र अभ्यास करे।
 
(89) यथा कूर्मः स्वकांगनि, स्वके देहे समाहरेत्।
एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मेन समाहरेत्।।
जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, उसी प्रकार मेधावी पुरुष अध्यात्म के द्वारा अपने पापों को समेट ले।
कछुए की उपमा साधक के लिए गीता, बुद्ध वचन, महावीर वाणी आदि में सर्वत्र प्रयुक्त हुई है। कछुवा भय-भीत स्थान में तत्काल अपने अंगों को समेटकर सुरक्षित हो जाता है।
साधक के लिए कछुए की वृत्ति आवश्यक है। वह अपनी प्रवृत्तियों को सतत समेटे रखे। बाहर भय ही भय है। जहाँ भी अनुपयुक्त-प्रमत्त हुआ कि बंधा। मुक्ति के लिए अप्रमत्तता आवश्यक है। (क्रमशः)