श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

आचार्य महाप्रज्ञ
जीवनवृत्त : कुछ चित्र, कुछ रेखाएँ

सिद्धार्थ ने नंदिवर्द्धन और सुपार्श्व से परामर्श किया और वे समाधि-मृत्यु की तैयारी में लग गए। भोजन की मात्रा कम कर दी। अल्पाहार और उपवास के द्वारा शरीर को साध लिया। अनासक्ति, वैराग्य और आत्मदर्शन के द्वारा उनका मन समाहित हो गया। उन्होंने मृत्यु का इतने शांतभाव से वरण किया कि मृत्यु को स्वयं पता नहीं चला कि वह कब आ गई। माता-पिता वर्द्धमान से बहुत प्रेम करते थे। माता-पिता के प्रति उनके मन में बहुत प्रेम था। अट्ठाईस वर्ष तक वे निरंतर माता-पिता की छत्रछाया में रहे। अब कुमार के मन में बार-बार यह प्रश्न उभरने लगा-क्या वह छाया सचमुच बादल की छाया थी?
माता-पिता के स्वर्गवास से कुमार का स्नेहिल मानस व्यथित हो उठा। जीवन की नश्वरता का सिद्धांत व्यवहार में उतर आया। संयोग का अंत वियोग में होता है-यह आँखों के सामने नाचने लगा। वे स्नेह के उस चरम बिंदु पर पहुँच गए जहाँ अनुराग विराग के सिंहासन पर विराजमान होता है।

चुल्लपिता के पास
सुपार्श्व की आशा पर तुषारापात जैसा हो गया। वे वर्द्धमान के चक्रवर्ती होने का स्वप्न संजोए बैठे थे। प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने उन्हें इसका विश्वास दिलाया था। उनका आत्मविश्वास भी यही कह रहा था। उन्होंने अपने विश्वास को दूर-दूर तक प्रचारित किया था। इस प्रचार के आधार पर श्रेणिक, प्रद्योत आदि अनेक राजकुमार वर्द्धमान की सेवा में उपस्थित होते थे। उनके पराक्रम, पुरुषार्थ और चरित्र उनके चक्रवर्ती होने का साक्ष्य दे रहे थे।
वर्द्धमान गृहवास को छोड़कर श्रमण बनने को उत्सुक हैं-इस सूचना से सुपार्श्व के सपनों का महल ढह गया। वे भाई के वियोग की व्यथा का परिधान अभी उतार नहीं पाए थे कि वर्द्धमान के अभिनिष्क्रमण की चर्चा ने उन्हें व्यथा का नया परिधान पहना दिया।
वर्द्धमान ने देखा, सुपार्श्व पूर्व-सूचना के बिना उनके कक्ष में आ रहे हैं। वे चुल्लपिता के आकस्मिक आगमन से विस्मय में पड़ गए। वे उठकर उनके सामने गए। प्रणाम कर बोले, ‘ चुल्लपिता! आपके आगमन से मैं कृतार्थ हूँ। मैं आपकी कृपा के लिए आभारी हूँ। पर आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया? मुझे आप अपने कक्ष में ही बुला लेते।’
सुपार्श्व ने मुस्कुराकर कहा, ‘कुमार! मैं यहाँ जाऊँ या तुम वहाँ आओ, इसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। जो अंतर पड़ रहा है उसे मिटाने की बात करो।’
‘मैं नहीं जानता, आपके और मेरे बीच में कोई अंतर है, चुल्लपिता!’
‘बेटे! तुम सच कहते हो। भाई के जीवनकाल में मेरे और तुम्हारे बीच में कोई अंतर नहीं
था। पर---’
‘वह अब कैसे आएगा? अब तो आप ही मेरे पिता हैं।’
भाई की स्मृति और कुमार की मृदु उक्ति से सुपार्श्व भावविह्वल हो गए। उनकी आँखों से आँसुओं की धार बह चली। वे सिसक-सिसककर रोने लगे। वे कुछ कहना चाहते थे पर वाणी उनका साथ नहीं दे रही थी। कुमार स्तब्धजड़ित जैसे एकटक उनकी ओर निहारते रहे। सुपार्श्व कुछ आश्वस्त हुए। भावावेश को रोककर कक्ष के एक आसन पर बैठ गए। कुछ क्षणों तक वातावरण में नीरवता छा गई।
‘वर्द्धमान! भाई और भाभी अब संसार में नहीं हैं-इसका सबको दुःख है। पर उस स्थिति पर हमारा वश नहीं है। कुमार! उस अवश स्थिति का लाभ उठाकर तुम घर से निकल जाना चाहते हो, यह सहन नहीं हो सकता।’
‘चुल्लपिता! मैं घर से निकल जाना कहाँ चाहता हूँ। मैं अपने घर से निकला हुआ हूँ, फिर से घर में चला जाना चाहता हूँ।’
‘कुमार! ऐसा मत कहो। तुम अपने घर में बैठे हो और उस घर में बैठे हो जिसमें जन्मे, पले-पुसे और बड़े हुए।’
‘चुल्लपिता! क्या मेरा अस्तित्व अट्ठाईस वर्ष से ही है? क्या इससे पहले मैं नहीं था? यदि था तो यह घर मेरा अपना कैसे हो सकता है? मेरा घर मेरी चेतना है जो कभी मुझसे अलग नहीं होती। मैं अब उसी में समा जाना चाहता हूँ।’

(क्रमशः)