धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

(5) संवरो मोक्षकारणम्

सम्यक्त्व संवर
यह मिथ्यात्व आश्रव का प्रतिपक्षी है। सम्यक् श्रद्धान इसका स्वरूप है। यह प्रथम चार गुणस्थानों में निष्पन्न नहीं होता। पाँचवें गुणस्थान में यह निष्पन्न हो जाता है जो कि चौदहवें गुणस्थान तक रहता है। पूर्व गुणस्थान में जो संवर निष्पन्न हो गया, वह उत्तरवर्ती गुणस्थानों में भी कायम रहता है। दूसरे व चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व आश्रव नहीं है परंतु वहाँ सम्यक्त्व संवर भी परंपरा सम्मत नहीं है। अन्य चार आश्रवों व चार संवरों में एक समान सिद्धांत कायम रहता हैµजहाँ आश्रव नहीं, वहाँ उस आश्रव का प्रतिपक्षी संवर निष्पन्न हो जाता है, जैसे पाँचवें गुणस्थान में आंशिक अव्रत आश्रव रुकता है, फलतः आंशिक व्रत संवर निष्पन्न हो जाता है। छठे गुणस्थान में पूर्णतया अव्रत आश्रव रुकता है, परिणामस्वरूप पूर्ण व्रत संवर निष्पन्न हो जाता है। सातवें गुणस्थान में प्रमाद आश्रव रुकता है, अप्रमाद संवर निष्पन्न हो जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान से कषाय आश्रव समाप्त हो जाता है, वहाँ अकषाय संवर निष्पन्न हो जाता है। चौदहवें गुणस्थान में योगआश्रव नहीं रहता, वहाँ अयोग संवर निष्पन्न हो जाता है। केवल मिथ्यात्व आश्रव और सम्यक्त्व संवर में ही पारस्परिक यह स्थिति नहीं है। दूसरे व चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व आश्रव भी नहीं है और सम्यक्त्व संवर भी नहीं है। कुछ भी हो, समझने में जटिलता जरूर प्रतीत हो रही है। सम्यक्त्व संवर त्याग-प्रत्याख्यान जन्य माना गया है।

व्रत संवर
यह सावद्य योग का प्रत्याख्यान व विरमण से उत्पन्न होने वाला है। इससे चारित्र की निष्पत्ति होती है। छठे से दसवें गुणस्थान तक क्षायोपशमिक चारित्र, ग्यारहवें गुणस्थान में औपशमिक चारित्र और बारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक क्षायिक चारित्र होता है।

अप्रमाद संवर
आध्यात्मिक लीनता की स्थिति में यह संवर निष्पन्न होता है। यह स्थिति सातवें गुणस्थान में निष्पन्न होती है। तीर्थंकर संयम-ग्रहण के समय चतुर्थ गुणस्थान से सीधे सप्तम गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। यह अप्रमाद की स्थिति बार-बार आती-जाती रह सकती है।

अकषाय संवर
सर्वथा कषायमुक्त स्थिति (मोह की अनुदयावस्था) में यह संवर निष्पन्न होता है। यह ग्यारहवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है। ग्यारहवें गुणस्थान वाला अकषाय संवर निश्चितरूपेण पुनः कषाय आश्रव के रूप में परिणत होता है। साधक पतन को प्राप्त हो नीच की भूमिका में आ जाता है।

अयोग संवर
यह एकमात्र चौदहवें गुणस्थान में निष्पन्न होने वाली स्थिति है। वहाँ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति सर्वथा
समाप्त हो जाती है। यह अत्यल्प काल तक रहने वाली स्थिति है। पाँच हृस्वाक्षर के उच्चारण काल जितनी इसकी अवधि होती है।
अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर प्रत्याख्यान जन्य नहीं है, वे कर्मविलय से सहज निष्पन्न होने वाले संवर हैं।
जैसे कुंड का नाला बंद कर देने से पानी का कुंड में प्रवेश नहीं हो सकता, भवन का द्वार बंद कर देने से मनुष्य आदि का उनमें प्रवेश अवरुद्ध हो जाता है, नौका का छिद्र रोक देने से उसमें से जल का प्रवेश भीतर नहीं हो पाता है। इसी प्रकार जीव के आश्रवद्वार रुक जाने से कर्म का आगमन बंद हो जाता है। इस कर्म-आगमन-द्वार के बंद होने को ही संवर कहा जाता है।
प्राणातिपात विरमण संवर आदि पंद्रह संवर व्रतसंवर के भेद हैं। इन पंद्रह भेदों में प्रत्याख्यान (त्याग) की अपेक्षा रहती है। प्राणातिपात आदि पंद्रह आश्रव योग आश्रव हैं। इनके अशुभ योग आश्रवों के प्रत्याख्यान से व्रत संवर निष्पन्न होता है। मन, वचन, काय के शुभ योग अवशेष रहते हैं। उनका सर्वथा निरोध होने पर अयोग संवर निष्पन्न होता है। यहाँ प्रश्न यह उठता हैµप्राणातिपात आदि पंद्रह आश्रव योग आश्रव के भेद हैं तो फिर प्राणातिपात विरमण आदि पंद्रह संवर अयोग संवर के भेद न होकर व्रत संवर के भेद क्यों?
इसका उत्तर यह हैµअव्रत आश्रव का आधार प्राणातिपात आदि पाप हैं। इनका त्याग न होना ही अव्रत आश्रव है। पंद्रह आश्रव प्राणातिपात आदि पापों में समाविष्ट हैं।
पंद्रह आश्रव प्रवृत्तिरूप है, अतः वे योग आश्रव के अंतर्गत हैं। इन पंद्रह आश्रवों का प्रत्याख्यान करने से अत्याग भाव रूप अव्रत का निरोध होता है अतः प्राणातिपात विरमण आदि पंद्रह संवर व्रत संवर के भेद निष्पन्न होते हैं।
परंतु प्रश्न अभी भी समाधान माँगता हैµप्राणातिपात आदि आश्रव योग आश्रव हैं तो उनके निरोध से अयोग संवर भी निष्पन्न क्यों नहीं होना चाहिए।
(क्रमशः)