श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

जीवनवृत्त : कुछ िचत्र, कुछ रेखाएॅँ
(िपछला शेष)
'व्यवहार क्या है, चुल्लपिता!'
'कुमार! तुम दर्शन की बातें कर रहे हो। मैं तुमसे अपेक्षा करता हूं कि तुम व्यवहार की बात करो।'
'कुमार! वज्जिसंघ का व्यवहार है-गणराज्य की परिषद् में भाग लेना और गणराज्य के शासन-सूत्र का संचालन करना।'
'चुल्लपिता! मैं जानता हूं, यह हमारा परम्परागत कार्य है। पर मैं क्या करूं, हिंसा और विषमता के वातावरण में काम करने के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है।' कुमार के मृदु और विनम्र उत्तर से सुपार्श्व कुछ आश्वस्त हुए। उन्होंने वार्ता को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा। वे कुमार को गहराई से सोचकर फिर बात करने की सूचना दे अपने कक्ष में चले गए। उसके तर्क ने मुझे प्रभावित किया। मैं थोड़े गहरे में उतरा। तत्काल भगवान् अरिष्टनेमि की घटना बिजली की भांति मेरे मस्तिष्क में कौंध गयी। अरिष्टनेमि की बारात द्वारका से चली और मथुरा के परिसर में पहुंची। वहां उन्होंने एक करुण चीत्कार सुनी। उन्होंने अपने सारथी से पूछा, 'ये इतने पशु किसलिए बाड़ों और पिंजड़ों में एकत्र किए गए हैं?'
'बारात को भात देने के लिए।'
अरिष्टनेमि का दिल करुणा से भर गया। उन्होंने कहा, 'एक का घर बने और इतने निरीह जीवों के घर उजड़े, यह नहीं हो सकता। वे तत्काल वापस मुड़ गए। अहिंसा के राजपथ पर एक क्रान्तदर्शी व्यक्तित्व अवतीर्ण हो गया।
मैं प्रागैतिहासिक काल के धुंधले-से इतिहास के आलोक में आ गया। वहां मैंने देखा-राजकुमार पार्श्व एक तपस्वी के सामने खड़े हैं। तपस्वी पंचाग्नि तप की साधना कर रहा है। राजकुमार ने अपने कर्मकरों से एक जलते हुए काष्ठ को चीरने के लिए कहा। एक कर्मकर ने उस काष्ठ को चीरा। उसमें एक अर्थदग्ध सांप का जोड़ा निकला।
इस घटना ने राजकुमार पार्श्व के अन्तःकरण को झकझोर दिया। उनका अहिंसक अभियान प्रारम्भ हो गया।
क्या महावीर का अन्तःस्तल किसी घटना से आन्दोलित नहीं हुआ है? इस प्रश्न से मेरा मन बहुत दिनों तक आलोड़ित होता रहा। आखिर मुझे इस प्रश्न का उत्तर मिल गया।
भगवान् महावीर महाराज सिद्धार्थ के पुत्र थे। सिद्धार्थ वज्जिसंघ-गणतंत्र के एक शासक थे। एक शासक के पुत्र होने के कारण वे वैभवपूर्ण वातावरण में पले-पुसे थे। उन्हें गरीबी, विषमता और भेदभाव का अनुभव नहीं था और न उन्हें इसका अनुभव था कि साधारण आदमी किस प्रकार कठिनाइयों और विवशताओं का जीवन जीता है।
एक दिन राजकुमार महावीर अपने कुछ सेवकों के साथ उद्यान-क्रीड़ा को जा रहे थे। राजपथ के पास एक बड़ा प्रासाद था। जैसे ही राजकुमार उसके पास गए, वैसे ही उन्हें एक करुण क्रन्दन सुनाई दिया। लगाम का इशारा पाते ही उनका घोड़ा ठहर गया। राजकुमार ने अपने सेवक से कहा, 'जाओ देखो, कौन, किस लिए बिलख रहा है?'
सेवक प्रासाद के अन्दर गया। वह स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर वापस आ गया। राजकुमार ने पूछा, 'कहो, क्या बात है?'
'कुछ नहीं, महाराज! यह घरेलू मामला है।'
'तो फिर इतनी करुण चीख क्यों?'
'गृहपति अपने दास को पीट रहा है।'
'क्या दास उनके घर का आदमी नहीं है?'
'घर का जरूर है पर घर में जन्मा हुआ नहीं है, खरीदा हुआ आदमी है।'
'शासन ने न केवल खरीदने का ही अधिकार दे रखा है, किन्तु क्रीत व्यक्ति को मारने तक का अधिकार भी दे रखा है।'