त्याग और संयम से प्रस्फुटित हो सकता है आनंद : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

त्याग और संयम से प्रस्फुटित हो सकता है आनंद : आचार्यश्री महाश्रमण

नागोठाणे, ३ मार्च, २०२४

अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी कोंकण क्षेत्र की यात्रा के अंतर्गत नागोठाणे पधारे। मंगल प्रवचन में आचार्य प्रवर ने फरमाया- आदमी के मन में इच्छाएं उभरती हैं। जब इच्छा लोभ के रूप में हो जाती है तो वह आगे से आगे बढ़ती रहती है। इच्छा का कोई पार नहीं है। इच्छा को आकाश के समान अनंत बताया गया है। जैसे आकाश का कोई ओर-छोर नहीं होता वैसे ही इच्छा भी बढ़ते-बढ़ते अंत हीन हो सकती है। इच्छा आध्यात्मिक रूप में भी हो सकती है। कोई ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की आराधना की इच्छा कर सकता है, किसी के कल्याण, आध्यात्मिक सेवा की इच्छा कर सकता है। अच्छी इच्छा कल्याणकारी हो सकती है। भौतिक लालसा जब लोभ का रूप ले लेती है तो आत्मा का अहित हो सकता है। बहुत कुछ पास में होकर भी आदमी दुखी हो सकता है और दूसरी ओर जिसके पास बहुत कम है वह सुखी भी हो सकता है।
एक ज्ञानी महात्मा प्रवचन दे रहे थे। प्रवचन के बाद एक युवक ने उनसे पूछा कि आपके सामने बैठी इतनी जनता में सबसे ज्यादा सुखी कौन है? महात्मा ने कहा कि अंतिम पंक्ति में बैठा अमुक युवक सुखी है। लोगों ने पता किया तो वह गांव का गरीब आदमी निकला। लोगों ने कहा कि आप राजा या नगर सेठ को सुखी कहते तब तो बात समझ में आती पर वह गरीब आदमी सुखी है यह बात समझ में नहीं आई । संयोग से वहां राजा और नगर सेठ भी उपस्थित थे। उनसे पूछा गया कि क्या आप सुखी हैं ? अन्य भी और लोगों से पूछा गया तो एक का भी उत्तर सकारात्मक नहीं निकला। जब उस लड़के को पूछा गया तो उसने कहा कि मैं तो पूर्ण रूप से सुखी हूं, संतुष्ट हूं। कोई चिंता नहीं, तनाव नहीं, दुःख नहीं, रोग नहीं। पदार्थों के होने पर भी आदमी भीतर से दुखी हो सकता है और कम संसाधन होने पर भी आदमी आनंद में रह सकता है। भीतर की शांति का संबंध साधना से है, बाहर के पदार्थ या संसाधनों से सुविधा तो मिल सकती है, पर शांति नहीं मिल सकती। साधना से शांति मिल सकती है।

कठोर जीवन होने पर भी एक साधु शांति में, आनन्द में रह सकता है। जो आनंद गृहस्थ को नहीं मिलता वह साधु को मिल सकता है। जहां त्याग और संयम है वहां आनंद प्रस्फुटित हो सकता है। जो भौतिकता और आसक्ति में रचा-पचा है, वह शान्ति-आनन्द की अनुभूति नहीं कर सकता। धन पुण्य के योग से मिल सकता है, पर धन शान्ति नहीं दिला सकता। धन का दुरुपयोग न करें, घमंड न करें, मोह न रखें तो धन होकर भी शांति मिल सकती है। संयम हो तो धन शान्ति और आनन्द दे सकता है। पास में पदार्थ हैं, धन है, तो भी व्यक्तिगत जीवन में संयम रहें।
साधना, अध्यात्म, अनासक्ति, शांति का आधार है, चेतना की निर्मलता के तत्त्व हैं। जहां संतोष है वहां परम सुख हो सकता है। मोह ग्रस्त लोग असंतोष में परायण करने वाले होते हैं, पंडित लोग शान्ति को धारण करने वाले होते हैं। आदमी संतोषी है तो वह शांति में रह सकता है। जैन धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह, इच्छा परिमाण, संयम, समता, तप की बात बताई जाती है। साधु के जीवन में तो साधना होनी ही चाहिए, गृहस्थ के जीवन में भी साधना चले। छोटे-छोटे बच्चों में, ज्ञानशाला के बच्चों में भी अच्छे संस्कार आएं। भगवान महावीर से जुड़े हुए इस जैन शासन में साधु भी हैं, श्रावक भी हैं, जो साधना और सेवा करने वाले हैं। हम लोकोत्तर अनुकंपा को धारण करें, जो आत्मा को उन्नयन की ओर ले जाने वाली है। जहां आत्मा के हित की बात है, वह लोकोत्तर अनुकंपा है। जहां शरीर के हित की बात है, भौतिकता से जुड़ाव है वह लौकिक अनुकंपा है। हमारी भौतिक इच्छाएं कम हो, दया, संयम और अध्यात्म की भावना पुष्ट होती रहे तो वह कल्याण की बात हो सकती है।
मंगल प्रवचन से पूर्व श्वेतांबर मूर्ति पूजक आम्नाय की अचलगच्छ परंपरा के मुनिगुणवल्लभ सागरजी पूज्य सन्निधि में पहुंचे। पूज्य प्रवर ने यात्रा के दो प्रकारों का विश्लेषण करते हुए कहा कि साधु के तो संयम की यात्रा आठों ही प्रहर चलती है, यह अंतर्यात्रा मंजिल प्राप्त होने तक चलती रहे। दूसरी यात्रा जो पैरों से जुड़ी है, वह भी धर्म यात्रा के रूप में यथा औचित्य होती रहे। मुनि गुणवल्लभसागरजी ने कहा कि बसंत के आने से प्रकृति मुस्कुराती है और आचार्य श्री जैसे सन्तों के आने से देश की संस्कृति मुस्कुराती है। आपने आचार्य महाप्रज्ञ जी के साहित्य एवं तेरापंथ में विनय की मुक्त कंठों से प्रशंसा की। प्रवचन के उपरांत श्रीमती शांतिबाई ओटरमल जैन आयुर्वेदिक कॉलेज की ओर से श्री किशोर जैन ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावाभिव्यक्ति देते हुए कॉलेज परिसर में बनने वाले हॉस्टल का नाम आचार्यश्री के नाम से रखने की अपनी भावना व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।