संसार में रहते हुए भी अनासक्ति की करें साधना : आचार्यश्री महाश्रमण
महान यायावर आचार्य श्री महाश्रमण जी अपनी धवल सेना के साथ आज गड़ब पधारे। आर्हत् वांग्मय की अमृत देशना प्रदान कराते हुए पूज्य प्रवर ने फरमाया कि जीवन में दो तत्त्व हैं - चेतन और अचेतन अर्थात् आत्मा और शरीर। न केवल हमारे जीवन में अपितु पूरी दुनियां में भी जीव और अजीव के सिवाय और कुछ भी नहीं है। आत्मा और शरीर ये दोनों अलग-अलग अस्तित्व वाले हैं, आत्मा स्थायी है, यह स्थूल शरीर नाशवान है। एक सिद्धान्त है कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है। एक दूसरा सिद्धांत यह भी है कि जो जीव है, वही शरीर है, अलग-अलग नहीं है। जैन दर्शन का मंतव्य है कि जीव अलग है, शरीर अलग है।
आत्मा भिन्न-शरीर भिन्न है, एक नहीं संजोना,
है मिट्टी से मिला जुला, पर आखिर सोना सोना।।
जैसे सोना मिट्टी से मिला होने के बाद भी अलग होता है, वैसे ही आत्मा और शरीर भी मिले-जुले होने के बाद भी अलग-अलग होते हैं। व्यक्ति इस शरीर और अन्य अनेकों पदार्थों के प्रति मोह-ममत्व कर लेता है। आदमी शरीर को अपना मान लेता है, पर यह शरीर हमेशा साथ नहीं रहने वाला। हम यह चिंतन करें कि मैं आत्मा हूं, मैं शरीर नहीं हूं। अध्यात्म का एक तत्त्व है- ममत्व को छोड़ना। संसार में रहते हुए भी अंदर में मोह न हो, अनासक्ति हो।
आसक्ति बंधन है, अनासक्ति मुक्ति की साधना है। गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी मोह को कम करने का प्रयास करें। जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी में रहते हुए भी निर्लिप्त रहता है उसी प्रकार गार्हस्थ्य में रहते हुए भी आदमी निर्लेप रहने का प्रयास करे। डॉ नरेश पालविया एवं उनकी धर्मपत्नी ने पूज्य प्रवर के स्वागत में अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।