अति लाभ होने पर भी इच्छाओं को रखें अल्प : आचार्यश्री महाश्रमण
तारा, पनवेल। २८ फरवरी २०२४
अणुव्रत अनुशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने रायगढ़ जिले के तारा गांव में पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि शास्त्र में कहा गया है जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ होता है। जैसे-जैसे आदमी को प्राप्त होता है, उसे और ज्यादा पाने की आकांक्षा पैदा हो जाती है। आदमी को अति लोभ नहीं करना चाहिए, लोभ सर्वगुणों का विनाश करने वाला होता है। लोभ को जीतना है तो उसका उपाय है- संतोष। संतोष की अनुप्रेक्षा करें, अनुचिंतन करें। ज्यों-ज्यों संतोष का भाव बढ़ेगा, त्यों-त्यों लोभ का भाव कमजोर पड़ सकेगा। कहा गया है- जब आए संतोष धन, सब धन धूलि समान । एक संतोष का धन आ जाता है, तो अन्य सारे धन धूल के समान हो जाते हैं। संतोष परम सुख है। अति लाभ होने पर भी इच्छाओं को स्वल्प रखने का प्रयास करें। उपलब्धियां हैं, तो भी उपभोग का संयम रखें ।
श्रावक के १२ व्रतों में इच्छा परिमाण और भोगोपभोग परिमाण व्रत का उल्लेख मिलता है। गृहस्थ अपने भोग और उपभोग को सीमित करने का प्रयास करें। साधु के जीवन में तो संतोष होना ही चाहिए, गृहस्थों को भी संतुष्ट मानस वाला होना चाहिये। दुनिया में बहुत सी वस्तुएं हैं पर सब की सब हमारे उपयोग में नहीं आ सकती। निजी जीवन के लिए पदार्थों के उपयोग का सीमाकरण करना चाहिये। कपड़ों, द्रव्यों आदि उपभोगों का परिसीमन करना चाहिए । लोभ की वृत्ति आदमी से अपराध भी करा सकती है।हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप आदमी लोभ के कारण कर सकता है। लोभ को पाप का बाप कहा जाता है। हम लोभ के भाव को नियंत्रित करने का प्रयास करें।
चौदह गुणस्थानों में दसवें गुणस्थान तक लोभ का अंश विद्यमान रहता है। गुस्सा ,अहंकार, माया खत्म हो जाती है पर लोभ बना रहता है। बारहवें गुणस्थान में लोभ समाप्त हो जाता है। पैरों में मजबूत जूते पहल लिए जाएं, फिर कांटे क्या कर सकते हैं? एक संतोष मन में आ गया तो लोभ क्या कर सकता है? नैतिकता, अहिंसा के लिए लोभ के भावों को कमजोर करना अपेक्षित होता है। भीतर के भाव गहरे शुद्ध हैं तो गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी होने पर भी आदमी अपराध में नहीं जाएगा। ये तीनों हिंसा के निमित्त बन सकते हैं पर ये मूल उपादान नहीं हैं। अलोभ की चेतना जाग जाए तो आदमी गलत रास्ते का चुनाव नहीं करेगा। इसलिए लोभ को अलोभ से जीतने का प्रयास करें। पूज्य प्रवर के स्वागत में अनिल कांबले ने अपनी भावना व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।