धर्म का संचय कर भरें अध्यात्म का कलश : आचार्यश्री महाश्रमण
शिवकर, न्यू पनवेल। २७ फरवरी २०२४
अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्य श्री महाश्रमणजी तेरापंथ विश्व भारती से विहार कर शिवकर पधारे। मंगल देशना प्रदान कराते हुए महायोगी ने फरमाया कि त्याग का बहुत बड़ा तत्त्व है। पदार्थों, संबंधों, पापकारी प्रवृत्तियों और भोगों का परित्याग यदि अच्छे रूप में हो जाए तो आदमी मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ सकता है। मोक्ष प्राप्ति के दो उपाय बताए गए हैं- त्याग और तप। हमें मनुष्य जन्म प्राप्त है, इसमें जितना त्याग, तप, संवर और निर्जरा का आराधन किया जाये, मनुष्य जीवन उतना ही सार्थक बन सकता है। कहा गया है कि राग के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। त्याग करने वाला त्यागी होता है। त्याग भी दो प्रकार के हो सकते हैं- ऊपरी त्याग और भीतरी त्याग। कोई विवशता या अभाव में पदार्थों का उपयोग नहीं कर पाता वह वास्तव में त्याग नहीं है। भीतर के वैराग्य भाव से यदि कुछ छोड़ा जाए वह त्याग होता है। सुख-सुविधा के उपलब्ध होने पर भी जो उनसे पीठ फेर लेता है वह सही रूप में त्यागी है।
छोटी उम्र में घर-परिवार त्याग कर साधु बन जाना बहुत बड़ा त्याग है। परम पूज्य आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ जी ने बचपन में ही साधुत्व स्वीकार कर लिया था। साधु, जिसने सब कुछ त्याग दिया, संसार से नाता तोड़ मोक्ष का मार्ग चुन लिया, वह राजाओं से भी बड़ा है। बचपन में साधु बनकर संयम पालन करना बड़ी बात होती है। गृहस्थ जीवन में भी त्याग-संयम किया जा सकता है। भोजन के पश्चात नियत समय के लिए त्याग, रात्रि में भी त्याग आदि किए जा सकते हैं। त्याग से धर्म का संचय कर अध्यात्म के कलश को भरना चाहिए। गृहस्थ धन का संचय करते हैं,
साथ में धर्म का संचय भी करें। रोज एक सामायिक होती रहे, छोटे-छोटे त्याग होते रहें, उन्हें भी धीरे-धीरे और बढ़ाते रहें। साधु के तो बड़ी पूंजी संयम है, उसे भी स्वाध्याय, तपस्या आदि से और बढ़ाना चाहिये। जितनी त्याग-तपस्या करेंगे उतना धर्म का संचरण होगा, आगे के लिए कल्याणकारी हो सकेगा। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।