संबोधि
आत्मा का शुद्ध स्वरूप उपादेय है। वही साध्य है। वह कैसे प्राप्त होता है, इसकी विधि का नाम साधना है। साधना को एक शब्द में बांधा जाए तो वह है संयम। संयम का अधिकारी वही होता है, जो संदेह के वातावरण में सांस नहीं लेता। साध्य की प्राप्ति में इंद्रिय, मन और शरीर बाधक होते हैं। आत्मा के साथ इनका गहरा संपर्क है। ये आत्मा को अपने जाल में यदा-कदा फंसाते ही रहते हैं। अबुद्ध आत्मा इस जाल से मुक्त नहीं हो सकती। प्रबुद्ध आत्मा मन आदि के घेरे में नहीं आती। यदि मोहवश उनका शिकार हो जाती है तो वह तत्क्षण उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करती है। उसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है। उसे यह ज्ञात है कि बंधन के स्रोत कहां-कहां हैं। जिसे बंधन के मार्गों का अवबोध नहीं है वह प्रतिक्षण उनका संग्रह करता रहता है। एक के बाद दूसरी बंधन की श्रृंखला जुड़ती चली जाती है। इसलिए साध्य, साधन और उसके ज्ञान की ज्ञप्ति अत्यंत आवश्यक है। इस अध्याय में इन्हीं का विशद विवेचन है।
मेघः प्राह
1- किं साध्यं? साधनं किञ्च? केन तन्नाम साध्यते ?
साध्यसाधनसंज्ञाने, जिज्ञासा मम वर्तते ॥
मेघ बोला- भगवन्! साध्य क्या है? साधन क्या है? साध्य की साधना कौन करता है? मैं साध्य और साधन के विषय को जानना चाहता हूं।
भगवान् प्राह
२- प्रश्नो वत्स! दुरूहोऽयं, नानात्वेन विभज्यते ।
नानारुचिरयं लोको, नानात्वं प्रतिपद्यते ॥
भगवान् ने कहा- वत्स! यह प्रश्न दुरूह है। यह अनेक प्रकार से विभक्त होता है। लोग भिन्न-भिन्न रुचिवाले होते हैं, अतः साध्य भी अनेक हो जाते हैं।
मार्ग विविध हैं और उनके प्रवर्तक भी विविध हैं। जीवन का लक्ष्य एक होते हुए भी प्रवर्तकों की दृष्टि से उसमें भिन्नता आ जाती है। कुछ व्यक्ति आस्थावान होते हैं और कुछ अनास्थावान। कुछ ज्ञानवादी होते हैं पर आचारवान नहीं। कुछ आचार पर बल देते हैं तो ज्ञान पर नहीं। कुछ मोक्ष, स्वर्ग और नरक को केवल धार्मिकों की कल्पना मात्र कहकर उसका मखौल उड़ाते हैं। कुछ 'अस्ति चेन् नास्तिको हतः' कहते हैं। यदि मोक्ष आदि है तो बेचारे नास्तिक का क्या होगा? आत्मा को न मानने वाले कर्म का फल भी नहीं मानते हैं। अतः उनका विश्वास हिंसा में होता है। कुछ आत्मा को मोक्ष में जड़ मानते हैं। जितने वाद हैं उनकी पृष्ठभूमि में विविधता भरी है। दार्शनिकों के मतवादों से मनुष्य अनेक मान्यताओं में विभक्त है। इसलिए उनका साध्य भी एक नहीं है। साध्य की अनेकता में साधनों की अनेकता भी अखरने वाली नहीं है।
साध्य और साधन के स्पष्ट विवेक में अनेकता एकता का वरण कर लेती है। वहां सत्य का आग्रह होता है, मिथ्या का नहीं। सत्याग्रही असंदिग्ध होता है। साधक के लिए दृढ़ आस्थावान होना आवश्यक है। संदिग्ध व्यक्ति साध्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता।
३- विद्यते नाम लोकोऽयं, न वा लोकोऽपि विद्यते ।
एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥
लोक है या नहीं - इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता।
4- विद्यते नाम जीवोऽयं, न वा जीवोऽपि विद्यते ।
एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥
जीव है या नहीं - इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता ।
५- विद्यते नाम कर्मेदं, न वा कर्मापि विद्यते ।
एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥
कर्म है या नहीं - इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता।