श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

राजकुमार का मन उत्पीड़ित हो उठा। वे उद्यान-क्रीडा को गए बिना ही वापस मुड़ गए। अब उनके मस्तिष्क में ये दो प्रश्न बार-बार उभरने लगे यह कैसा शासन, जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य को खरीदने का अधिकार दे। यह कैसा शासन, जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य को मारने का अधिकार दे? उनका मन शासन के प्रति विद्रोह कर उठा। उनका मन ऐसा जीवन जीने के लिए तड़प उठा, जहां शासन न हो। महावीर को बचपन से ही सहज सन्मति प्राप्त थी। निमित्त का योग पाकर उनकी सन्मति और अधिक प्रबुद्ध हो गई। उन्होंने शासन की परम्पराओं और विधि-विधानों से दूर रहकर अकेले में जीवन जीने का निश्चय कर लिया।
वर्द्धमान शासन-मुक्त जीवन जीने की तैयारी करने लगे। नंदिवर्द्धन को इसका पता लग गया। वे वर्द्धमान के पास आकर बोले, 'भैया! इधर माता-पिता का वियोग और इधर तुम्हारा घर से अभिनिष्क्रमण! क्या मैं दोनों वज्रपातों को सह सकूंगा? क्या जले पर नमक छिड़कना तुम्हारे लिए उचित होगा? तुम ऐसा मत करो। तुम घर छोड़कर मत जाओ। यह पिता का उत्तराधिकार तुम सम्भालो। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार हूं। मेरा फिर यही अनुरोध है कि तुम घर छोड़कर मत जाओ।' 'भैया! मुझे शासन के प्रति कोई आकर्षण नहीं है। जिस शासन में मानव की दुर्दशा के लिए अवकाश है, वह मेरे लिए कथमपि आदेय नहीं हो सकता। मेरा तन स्वतंत्रता के लिए तड़प रहा है। आप मुझे आज्ञा दें, जिससे मैं अपने ध्येय-पथ पर आगे बढूं।
'भैया! तुम्हें लगता है कि शासन में खामियां हैं। वह मनुष्य को मर्यादाशील नहीं बनाता, किन्तु उसकी परतंत्रता की पकड़ को मजबूत करता है तो उसे स्वस्थ बनाने के लिए तुम शासन में क्यों नहीं आते हो?' 'भैया! हम गणतंत्र के शासक हैं। गणतंत्रीय शासन पद्धति में हमें सबक मतों का सम्मान करना होता है। उसमें अकेला व्यक्ति जैसा चाहे, वैसे परिवर्तन कैसे ला सकता है? मैं पहले अपने अन्तःकरण में परिवर्तन लाऊंगा। उस प्रयोग के सफल होने पर फिर मैं उसे सामाजिक स्तर पर लाने का प्रयत्न करूंगा।'
'भैया! तुम कहते हो, वह ठीक है। मैं तुम्हारे इस महान् उद्देश्य की पूर्ति में बाधक नहीं बनूंगा। पर इस समय तुम्हारा घर से अभिनिष्क्रमण क्या उचित होगा? क्या मैं इस आरोप से मुक्त रह सकूंगा कि माता-पिता के दिवंगत होते ही बड़े भाई ने छोटे भाई को घर से बाहर निकाल दिया?' नंदिवर्द्धन का तर्क भी बलवान था और उससे भी बलवान थी उसके हृदय की भावना। महावीर का करुणार्द्र हृदय उसका अतिक्रमण नहीं कर सका।
दिन भर की थकान के बाद सूर्य अपनी रश्मियों को समेट रहा था। चरवाहे जंगल में स्वच्छन्द घूमती गायों को एकत्र कर गांव में लौट रहे थे। दुकानदार दुकानों में बिखरी हुई वस्तुओं को समेट कर भीतर रख रहे थे। सूर्य की रश्मियों के फैलाव के साथ न जाने कितनी वस्तुएं फैलती हैं और उनके सिमटने के साथ वे सिमट जाती हैं। सुपार्श्व और नंदिवर्द्धन के साथ बिखरी हुई कुमार वर्द्धमान की बात अभी सिमट नहीं पा रही थी।
मधुकर पुष्प-पराग का स्पर्श पाकर ही सन्तुष्ट नहीं होता, वह उससे मधु प्राप्त कर सन्तुष्ट होता है। सुपार्श्व और नंदिवर्द्धन दोनों अपने-अपने असन्तोष का आदान- प्रादान कर रहे थे। उन्हें कुमार वर्द्धमान से सन्तोष देने वाला मधु अभी मिला नहीं था। कुमार वर्द्धमान अपने लक्ष्य पर अडिग थे, साथ-साथ अपने चाचा और भाई की वेदना से द्रवित भी थे। वे उन्हें प्रसन्न कर अभिनिष्क्रमण करना चाहते थे। उनकी करुणा और अहिंसा में प्रकृति सौकुमार्य का तत्त्व बहुत प्रबल था।
कुमार अपनी बात को समेटने के लिए नंदिवर्द्धन के कक्ष में आए। चाचा और भाई को मंत्रणा करते देख प्रफुल्ल हो उठे। उनकी मंत्रणा का विषय मेरा अभिनिष्क्रमण ही है, यह समझते उन्हें देर नहीं लगी। वे दोनों को प्रणाम कर उनके पास बैठ गए। सुपार्श्व ने वर्द्धमान के अभिनिष्क्रमण की बात छेड़ दी। नंदिवर्द्धन ने कहा, 'चुल्लपिता! यह अकांड वज्रपात है। इसे हम सहन नहीं कर सकते। कुमार को अपना निर्णय बदलना होगा। मैं पहले ही कुमार से यह चर्चा कर चुका हूं। आज हम दोनों बैठे हैं। मैं चाहता हूं, अभी इस बात का अन्तिम निर्णय हो जाए।'