अनित्य मनुष्य जीवन में प्रमाद नहीं करें : आचार्यश्री महाश्रमण
महाड़। ९ मार्च, २०२४
तीर्थंकर के प्रतिनिधि अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी आज कोंकण के महाड़ में अपनी धवल सेना के साथ द्वि-दिवसीय प्रवास हेतु पधारे। महामनीषी आचार्य प्रवर ने पावन प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में नित्यता भी है और अनित्यता भी है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चारों अमूर्त अस्तिकाय हैं, ये नित्य होते हैं। जीवास्तिकाय में आत्मा है, आत्मा नित्य है, क्योंकि आत्मा के जो असंख्य प्रदेश हैं उनको कोई छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता। आत्मा के असंख्य प्रदेश का पिंड हमेशा था, है और रहेगा। आचार्य श्री भिक्षु की रचना 'तेरह द्वार' का एक वाक्यांश है: 'चारां री पर्याय पलटे नहीं, एक पुद्गल री पर्याय पलटे।'
अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन चारों की पर्याय परिवर्तन नहीं होती इसलिए ये नित्य हैं। जीव के प्रदेशों का विनाश नहीं होता परंतु परिवर्तन इस रूप में हो सकता है कि आत्मा के असंख्य प्रदेशों का पिंड आज हाथी के शरीर में है तो कभी कुंथु के शरीर में भी समाविष्ट हो सकता है। आत्मा कभी पूरे लोक में फैल जाए, कभी मनुष्य के शरीर में, कभी नारक के शरीर में, कभी देव तो कभी तिर्यंच के शरीर में भी समा जाए। किसी भी गति में आत्मा जाए उसके प्रदेश एक भी कम ज्यादा नहीं हो सकते। शरीर का परिवर्तन हो सकता है, पर आत्म प्रदेशों का नहीं। इस प्रकार आत्मा की नित्यता भी हो गई और शरीर की अनित्यता भी हो गई। उत्तराध्ययन के दसवें अध्याय के पहले श्लोक के माध्यम से प्रमाद से बचने की प्रेरणा दी गई कि जिस प्रकार एक वृक्ष का पका हुआ पत्ता गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी कभी न कभी समाप्त हो जाता है। इसलिए कहा गया- हे गौतम! समय मात्र भी प्रमाद मत करो। यह मनुष्य जीवन अनित्य है, अशाश्वत है, इसमें प्रमाद नहीं करें।
चतुर्दशी पर हाजरी वाचन के संदर्भ में पूज्य प्रवर ने फरमाया कि जिसको साधुत्व मिल गया है, उसको दुनिया की बहुत बड़ी चीज मिल गयी है। इसके सामने भौतिक चीज ना कुछ जैसी है। कोई व्यक्ति राजा तो पुण्य के उदय से बनता है पर साधु क्षयोपशम के योग से बनता है। साधु अमूर्त भाग्य से युक्त है, राजा मूर्त भाग्य वाला होता है। इस प्रकार साधु अधिक सौभाग्यशाली है। साधु के पांच महाव्रत अमूल्य हीरे हैं। पांच महाव्रतों रूपी हीरों की ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा करने का प्रयास करते रहें। पूज्य प्रवर ने हाजरी वाचन कराते हुए साधु-साध्वी समुदाय को मर्यादाओं के पालन में जागरूक रहने की प्रेरणा प्रदान करवायी।
मुख्य प्रवचन एवं हाजरी वाचन के पश्चात पूज्य प्रवर की सन्निधि में 'शासनश्री' साध्वी सोमलताजी की स्मृति सभा का आयोजन हुआ। साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभा जी ने कहा सप्तम् साध्वीप्रमुखा श्री लाडांजी के करकमलों से दीक्षित साध्वी सोमलता जी मधुर व्याख्यानी थी, मधुर गाती भी थी और उनका व्यवहार भी मधुर था। सहवर्ती साध्वियां उनके प्रति समर्पित थी और उन्होंने साध्वी सोमलता जी की अच्छी सेवा भी की। उनकी आत्मा ऊर्ध्वारोहण करती रहे। मुख्य मुनिश्री महावीर कुमार जी ने कहा कि िजसके पास धर्म का पाथेय होता है वह अगले जन्म में अल्प कर्म वाला होता है। साध्वी श्री सोमलता ने धर्म का ऐसा पाथेय तैयार करने का प्रयास किया जिससे उनका वर्तमान जीवन भी अच्छा रहा और आगे भी अच्छा होगा। वे तीन वर्ष की चाकरी के ऋण से भी ऊऋण हो चुकी थी। उनकी आत्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बने। साध्वी मैत्रीयशाजी ने साध्वी सोमलता के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अपने विचार व्यक्त किए। साध्वी वृंद ने साध्वी सोमलताजी की स्मृति में गीत का संगान किया।
पूज्य प्रवर ने साध्वी सोमलता जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी आत्मा के प्रति आध्यात्मिक मंगलभावना अभिव्यक्त की एवं चार लोगस्स का ध्यान करवाया। मुंबई चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति अध्यक्ष मदन लाल तातेड़ एवं मनोहर गोखरू ने अपने विचार व्यक्त किए। साध्वी सोमलता जी के संसारपक्षीय भतीजे महेंद्र बैद, दादर सभाध्यक्ष गणपत मारू एवं तेरापंथ महिला मंडल दादर ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्य प्रवर के स्वागत में लादूलाल गांधी, पवन देसरला, अर्हं मांडोत ने अपने विचार प्रस्तुत किए। तेरापंथ महिला मंडल, जैन समाज युवक मंडल, ज्येष्ठ श्रावक संघ ने पृथक्-पृथक् गीत का संगान किया। ज्ञानशाला की सुन्दर प्रस्तुति हुई। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।