धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

सत्य शोध का यात्रा पथ

महारानी अपराजिता, जिसने राम जैसे महापुरुष को जन्म दिया, के जीवन में भी एक बार अविचारित निर्णय का अवसर आया। विशेष उत्सव के अवसर पर महाराज दशरथ ने अपनी रानियों के पास मंगल जलपूर्ण कलश भेजे। अन्य रानियों को वे कलश प्राप्त हो गए, किन्तु महारानी अपराजिता के पास मंगल कलश नहीं पहुंचा। महारानी ने सोचा-महाराज मेरे से अप्रसन्न हैं, इसीलिए मेरे साथ ऐसा अपमान पूर्ण व्यवहार किया गया है। अन्यथा सबसे पहले ससम्मान मेरे पास कलश पहुंचता। अपने ही द्वारा कल्पित अपमान से संत्रस्त होकर महारानी ने आत्महत्या करने का निर्णय कर लिया और उसकी तैयारी भी कर ली। इतने में ही महाराज का वहां आगमन हो गया। उन्होंने महारानी को वैसा करने से रोका और इसका कारण पूछा। महारानी ने अपने मन की व्यथा-कथा सुनाई। उसी समय मंगल कलश लिए 'खोजा' वहां पहुंचा और कलश महारानी को उपहत किया। महारानी का मन शान्त हुआ। देरी का कारण पूछने पर खोजा बोला–महाराज! अन्य रानियों के लिए तो आपने दासियों को भेजा। वे युवतियां थीं, अतः शीघ्र पहुंच गई। मैं तो वृद्ध हूं खांसता-खांसता और थूकता-थूकता धीमे-धीमे चलकर यहां आया हूं। महाराज ने कहा- देखा महारानी! तुम्हारे सम्मान के लिए मैंने खोजे के साथ मंगल कलश भेजा है। अपराजिता गद्गद् हो गई और अचिन्तित निर्णय के लिए अनुताप करने लगी।
सत्य-शोध का यात्रापथ लम्बा होता है। अनेकानेक जन्म इस पथ को काटने में लग सकते हैं। इस यात्रा की सम्पन्नता के बाद निष्पत्ति-स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रलम्ब यात्रा-मार्ग के मुख्य-मुख्य स्थान हैं-
१- जीव और अजीव का अवबोध
२- सब जीवों की बहुविध गति का ज्ञान
३- पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष का ज्ञान
४- भोग-विरक्ति
५- आभ्यन्तर और बाह्य संयोग का परित्याग
६- अनगार वृत्ति का स्वीकरण
७- उत्कृष्ट संवर को साधना
८- केवलज्ञान केवल-दर्शन की प्राप्ति
९- योग निरोध
१०- मोक्षावस्थान-यात्रा की सम्पन्नता
मोक्ष का मार्ग है सम्यग् दर्शन, सम्यगूज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधनात– 'सम्यग दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।' तप को चारित्र के अन्तर्गत लिया जाए तो त्रयी और उसकी अलग विवक्षा की जाए तो दर्शन, ज्ञान, चरित्र व तप-यह चतुष्टयी मोक्षमार्ग है। अकेला ज्ञान और अकेली क्रिया अपने आप में अपूर्ण हैं, पूर्ण मार्ग नहीं है, ज्ञान और क्रिया की युति व समन्वय मोक्ष-मार्ग बनता है। दो शब्दों में ज्ञान और चारित्र को मोक्ष-मार्ग कहा जा सकता है। सम्यग् दर्शन के लिए अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शन मोहनीय कर्म का विलय अपेक्षित रहता है। मेरे ही मन में यहां एक प्रश्न उत्पन्न हुआ। वह यह कि सम्यक् दर्शन को प्राप्ति के लिए दर्शन मोहनीय का विलय होना अपेक्षित है, यह बात संगत है। परन्तु सम्यग् दर्शन के लिए अनन्तानुबन्धी कषाय, जो कि चरित्र मोहनीय की एक चतुष्टयी (क्रोध, मान, माया, लोभ) है, का भी विलय आवश्यक है, यह क्यों?

दर्शन मोहनीय का स्वतन्त्र विभाग है जिसका संबंध दर्शन से है। चरित्र मोहनीय का भी स्वतंत्र विभाग है, जिसका संबंध चरित्र से है। अपना-अपना अलग-अलग विभाग है फिर सम्यग् दर्शन को अनन्तानुबंधी कषाय (चारित्र मोहनीय) के विलय की अपेक्षा क्यों रहे? मात्र दर्शन मोह के विलय से ही सम्यग् दर्शन की निष्पत्ति होनी चाहिए। यह प्रश्न स्वयं मुझे संगत प्रतीत हो रहा है। परम पूज्य गुरुवर के श्री चरणों में बैठकर की गई जिज्ञासा के उत्तर से संपुष्ट बना मेरा ही चिन्तन मुझे समाधान दे गया कि मोहनीय कर्म का प्राण है कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ)। इसी पर आधारित है पूरा मोहनीय कर्म। यदि यह कषाय न रहे तो फिर मोहनीय कर्म का कुछ नहीं बचेगा। दर्शन और चारित्र दोनों का ही संबंध इस कषाय से है। दर्शन और चरित्र हमें दो अलग-अलग रूप में दिखाई दे रहे हैं और दो हैं भी। परन्तु कहीं जाकर ये दोनों एक हो जाते हैं अथवा दोनों एक-दूसरे पर पूर्णतया आधारित हो जाते हैं, दोनों मल्या हो जाते हैं। प्रत्येक जीव में दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय का न्यूनतम क्षयोपशम तो रहता ही है, अधिकतम विलय हो तो क्षय तक हो जाता है। ऐसा कोई जीव नहीं जिसमें दर्शन मोहनीय का क्षयोपशम तो हो और चारित्र मोहनीय का न हो अथवा चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम तो हो और दर्शन मोहनीय का विलय किंचित् मात्रा में भी न हो।