संबोधि
६. अस्ति कर्मफलं वेद्यं, न वा वेद्यं च विद्यते ।
एवं संशयमापन्नः, साध्यं प्रति न धावति ॥
कर्म का फल भोगना पड़ता है या नहीं – इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता ।
७. अस्ति लोकोऽपि जीवोऽपि, कर्म कर्मफलं ध्रुवम् ।
एवं निश्चयमापन्नः, साध्यं प्रति प्रधावति ॥
लोक है, जीव है, कर्म है और कर्मफल भुगतना पड़ता है–इस प्रकार जो आस्थावान् है, वह साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है।
साध्य का अधिकारी आस्थावान है, अनास्थावान नहीं। जो अनास्थावान है वह धर्म में प्रवृत्त भी नहीं हो सकता। धर्म में वही प्रवृत्त हो सकता है जो आस्थावान चाहता है कि मैं क्लेश से मुक्त बनूं, जन्म और मृत्यु का विजेता बनूं। मेरी आत्मा परमात्मा है। जब मेरे बंधन छूट जायेंगे तब मैं आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो सकूंगा। भोग मेरा साध्य नहीं है, मेरा साध्य है योग। जीव, लोक, कर्म और कर्म-फल- ये आस्था के मूल सूत्र हैं। इनमें आस्था रखना प्रत्येक आस्तिक का कर्तव्य है।
८. निरावृतिश्च निर्विघ्नो, निर्मोहो दृष्टिमानसौ ।
आत्मा स्यादिदमेवास्ति, साध्यमात्मविदां नृणाम् ॥
आत्मविद्-आत्मा को जानने वाले पुरुषों के लिए निरावरण, निर्विघ्न-निरन्तराय, निर्मोह और दृष्टि सम्पन्न सम्यग्दर्शन युक्त आत्मा ही साध्य है।
अध्यात्म-द्रष्टा व्यक्तियों का साध्य आत्मा है। लेकिन वह शुद्ध आत्मा है, अशुद्ध नहीं। आत्मा की अशुद्धता वास्तविक नहीं है, वह कर्मजनित है, परकृत है। पर के जब संस्कार छूट जाते हैं तब आत्मा स्वरूप में स्थित हो जाती है। आत्मा का स्वरूप है अनंत ज्ञानमय, अनंत दर्शनमय, अनंत आनंदमय और अनंत सुखमय ।
९. आवरणस्य विघ्नस्य, मोहस्य दृक्चरित्रयोः ।
निरोधो जायते तेन, संयमः साधनं भवेत् ॥
• संयम से आवरण, विघ्न, दृष्टिमोह और चारित्रमोह का निरोध होता है इसलिए वह आत्मा की प्राप्ति-साध्य की सिद्धि का साधन है।
अनंत ज्ञान, अनंत श्रद्धा, अनंत आनंद और अनंत शक्ति - यह आत्मा का मूल स्वभाव है। यह स्वभाव कर्म से तिरोहित - ढका रहता है। जब तक स्वभाव का अनावरण न हो तब तक आत्मा भ्रांत रहती है। वह पर–वस्तु को स्वकीय मान लेती है और स्व–वस्तु को परकीय। इसलिए यह अपेक्षित होता है कि यह आवरण हटे। प्रकाश के सद्भाव में तम की दीवार ढह जाती है। आवरण को हटाने की अपेक्षा प्रकाश को प्रकट करना जरूरी है। साधक आवरण हटाता नहीं। आवरण हटता है। वह स्वभाव को जागृत करता है। आवरण विलीन हो जाता है। स्वभाव जागरण की प्रक्रिया है संयम। संयम का अर्थ है– इन्द्रिय-विजय और मन–विजय। जब वह संयम अनुत्तर होता है, तब साध्य सिद्ध हो जाता है।
१०. आत्मानं संयतं कृत्वा, सततं श्रद्धयान्वितः ।
आत्मानं साधयेच्छान्तः, साध्यं प्राप्नोति स ध्रुवम् ॥
जो श्रद्धा संपन्न पुरुष अपने को संयमी बना आत्म-साधना करता है, वह शांत-कषायरहित पुरुष साध्य को प्राप्त होता है।
साध्य को प्राप्त करने के लिए तीन उपायों का अबलंबन लेना होता है - संयम, श्रद्धा और शम। श्रद्धा के अभाव में संयम का स्वीकार नहीं होता। संयम भौतिक सुख-सुविधा का त्याग है। वह तब ही होता है जब कि मन आत्मलीन होता है। संयम के द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएं नियंत्रित हो जाती हैं। शम संयम से भिन्न नहीं है। शम का अर्थ है - कषाय- विजय, लेकिन साधना के प्राग् अभ्यास के लिए पृथक् रूप से उल्लेख किया है, जिससे कि साधक सतत सावधान रहे कि मुझे कषाय-विजयी होना है।