पंख होते तो उड़कर मैं भी पहुंच जाती...

पंख होते तो उड़कर मैं भी पहुंच जाती...

वि.सं. 2039 आषाढ़ महीना का प्रारंभ, पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने साध्वी सोमलताजी के साथ मुझे भी याद किया, हम गुरु सन्निधि में पहुंचे। पूज्यवर ने साध्वी सोमलता जी का चतुर्मास सरदारपुरा तातेड़ गेस्ट हाऊस में घोषित किया। साध्वी सोमलता जी की सहयोगी साध्वी इंदिराजी, मैं (साध्वी शिवमाला), साध्वी लघिमा जी हम चार साध्वियां थी। प्रवचन कौशल, वाणी की कुशलता, श्रावक समाज में साध्वी सोमलताजी प्रति अपूर्व भक्ति। पारस ऋतु तपस्या की बहार, प्रत्येक तपस्वी के नाम का गीत बनाकर प्रोत्साहित करते। अनुरत्नाधिक होते हुए जो स्नेह, वात्सल्य मुझे दिया मैं सोचती हूं राम भक्त हनुमान जैसा नाता जुड़ गया। हनुमानजी ने सीना चीरकर राम को दिखा दिया, परन्तु मैं ऐसा करने में असमर्थ हूं। 
 
शायद ही ऐसा कोई दिन गया होगा, जो तुम्हारी याद के बिना जिया होगा। 
समय-समय पर जब मिलन होता तो कितना आत्मीय भाव, हितेषु, सम्यक् समाधान देते। मेरे मन में यह बात आती है कि यह साथ क्यों छूटा ? काश ! अन्तिम श्वास तक साथ रहकर सेवा कर पाती। असाध्य वेदना की वार्ता सुन बहुत अफसोस होता। जिस साध्वी की संघ को जरूरत, श्रावक समाज को जरूरत उनके तन में असाध्य वेदना क्यों ? इस वैज्ञानिक युग में मोबाइल के माध्यम से भाई बहिन का मिलन देखकर आहृाद की अनुभूति हुई। गीत की पंक्ति ‘‘बीरो साता पूछण आयो’’ मेरे कानों में हर क्षण गूंजती है। सहयोगी साध्वियां अद्भूत सेवा कर निर्जरा में सहयोगी बनीं। अगर पंख होते तो उड़कर मैं भी साध्वी सोमलता जी के पास पहुंच जाती।  हृदय में अनेक प्रकार की कल्पनाएं थी कि हैदराबाद चतुर्मास के बाद महाराष्ट्र की ओर जाएं और हमारा मिलन हो, सारी कल्पनाएं अधूरी रह गई। 
साध्वी सोमलताजी का व्यक्तित्व ऐसा था कि जिस क्षेत्र में चतुर्मास किया, सफलतम सूची में रहा। भाई बहिनों के दिलों अपना स्थान बनाया। असाध्य वेदना को सहन करते-करते संथारा कर अपना कार्य सिद्ध किया।