लाडांजी की लाडली 'शासनश्री' साध्वीश्री सोमलता जी

लाडांजी की लाडली 'शासनश्री' साध्वीश्री सोमलता जी

‘शासनश्री’ साध्वी सोमलता जी का जन्म गंगाशहर में माता कल्याण मित्र, श्रद्धा की प्रतिमूर्ति स्व. केसरदेवी पिता स्व. रतनलाल जी के घर ७ नवंबर १९५१, कार्तिक शुक्ला अष्टमी संवत २००८ के दिन हुआ। आप चार भाईयों पर प्रथम बहन जन्मी। आपसे छोटी एक बहन और तीन भाई थे, इस प्रकार ९ भाई-बहनों का बड़ा परिवार था। आपके नानाजी टीकमचंद जी चोपड़ा का स्वर्गवास हुआ, उस समय आप बिहार (जलालगढ़) से गंगाशहर आये और उस समय आचार्यश्री तुलसी बीकानेर में विराज रहे थे। आप अपनी माता केसरदेवी, मासी की बेटी बहन मीनू (साध्वी मधुरेखाजी) गंगाशहर से पैदल सुबह का प्रवचन सुनने जाते। एक दिन गुरुदेव ने सहज आप लोगों की नियमितता देखकर पुछवाया! तुम लोग नियमित व्याख्यान सुनते हो, क्या व्यख्यान समझ में आता है? सभी ने कहा व्याख्यान सुनने में इतना आनंद आता है कि एक दिन भी छोड़ने का मन नहीं होता। इसलिए हम लोग गंगाशहर से सबसे पहले पहुंचते हैं ताकि बैठने के लिए प्रथम पंक्ति में स्थान मिल सके। पूज्य प्रवर ने कई प्रश्न पूछे, प्रश्नों का सटीक उत्तर सुनकर गुरुदेव प्रसन्न हुए।
गुरुदेव ने दूसरा प्रश्न पूछा–बताओ दीक्षा कौन-कौन लोगे? दोनों बहनों ने साहस बटोरकर कहा 'हम लेंगे'। गुरुदेव ने कहा पक्की रहना। घर आये और दोनों बहने मीनू और शांति दीक्षा की तैयारी में लग गयी। परंतु उस समय पिताजी परदेश थे, माता केसरदेवी ने साहस करके पुत्री की भावना को साकार करने में पूरा सहयोग दिया। भीनासर निवासी गुलाबचंदजी बैद से सलाह करके संस्था में प्रवेश करवाया। परिवार से पहले शासनश्री मुनि श्री गणेशमलजी स्वामी दीक्षित थे, इसलिए पूरे परिवार में सेवा दर्शन की भावना रहती थी। आपकी तीव्र वैराग्य भावना देखकर पारिवारिक सदस्यों ने पूज्य प्रवर से दीक्षा की अर्ज की। उस समय पूज्य प्रवर की दक्षिण यात्रा चल रही थी। साध्वी प्रमुखा लाडांजी बीदासर में विराजमान थी। स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव चल रहा था।
भाईजी महाराज (चंपालालजी स्वामी) के मन में भावना जागृत हुई की एक दीक्षा बीदासर लाडांजी के हाथ से हो। पूज्य गुरुदेव ने भाईजी महाराज की भावना को ध्यान में रखकर आपकी दीक्षा बीदासर महासती लाडांजी के द्वारा घोषित की। आप गुरु दृष्टि पाकर अपने आपको भाग्यशाली मानने लगी। वि.सं.२०२५ कार्तिक कृष्णा अष्टमी के दिन, मातुश्री छोगा जी के स्मारक स्थल पर, मातुश्री वदनांजी के पावन सान्निध्य में बीदासर में, साध्वी प्रमुखा लाडांजी के कर कमलों से दीक्षा हुई। उस दिन सोमवार था, आपका नाम सोमलता रखा गया। दीक्षा के पश्चात आपको 'शासनश्री' साध्वी श्री कंचनप्रभाजी के पास नियुक्त किया गया। 'शासनश्री' साध्वी कंचनप्रभाजी ने आपको साधु जीवन के गहरे संस्कार दिये, िजन्होंने जीवन के अंतिम श्वास तक आपको हर तरह से उन्नत बनाये रखा।
साध्वी प्रमुखा लाडांजी के स्वर्गवास के पश्चात आपका प्रथम चातुर्मास सरदारशहर साध्वी सुंदरजी के साथ हुआ, तत्पश्चात शासनश्री साध्वी संघमित्राजी, शासनश्री साध्वी कमलश्रीजी के साथ भी रहना हुआ। आपकी क्षमताओं को देखकर पूज्य प्रवर ने गुरुकुल वास में रखा और वि.सं. २०३९ में आपको अग्रगण्य की वंदना करवाकर सरदारपुरा (जोधपुर) में आपका चातुर्मास फरमाया। तब से अंतिम समय तक पूज्य प्रवरों की आप पर विशेष कृपा दृष्टि बनी रही। आपने बिहार, बंगाल, असम, सिक्किम, नेपाल, भूटान की सफल यात्रा करके गुरुदेव के दिल में विशेष स्थान बनाया। बीदासर, गंगाशहर, श्रीडूंगरगढ़ तीनों सेवा केन्द्रों में सेवा देकर ऋण मुक्त होकर गौरव की अनुभूति की। आपकी सहयोगिनी साध्वी कीर्तिलताजी को आपके रहते ही अग्रगण्य बनाया। तीनों बहने (कीर्तिलताजी, शांतिलताजी, पूनमप्रभाजी) वर्षों तक आपके साथ रही। इन वर्षों में आप काफी अस्वस्थ रहने लगी। महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की पूर्ण कृपा से कई वर्षों से आपका मुंबई में दीर्घ कालीन प्रवास रहा। आपकी व्याख्यान शैली से, आपके सरस गीतों और व्यवहार से आबाल वृद्ध प्रसन्न थे। इस बार पूज्य प्रवर का मुंबई चातुर्मास होने से पूज्य प्रवर की सेवा-उपासना, प्रवचन का लाभ मिल सका। स्वास्थ्य की गिरावट को देखकर चातुर्मास में ही उपचार के लिए पार्ले में आना पड़ा। वर्षों से आपके स्वास्थ्य की पूरी जानकारी रखने वाले दिलीप सरावगी ने अंतिम श्वास तक अपना पूरा दायित्व निभाया। इस वर्ष का मेरा चातुर्मास दिल्ली घोषित था। चातुर्मास के बाद भी पूज्य गुरुदेव, करुणा के भंडार आचार्य श्री महाश्रमण जी ने दिल्ली के प्रभावी कार्यक्रमों को सुनकर ‘१२ फरवरी २०२४ तक दिल्ली में रहा जा सकता है’ ऐसा संदेश भी प्रदान करवाया था।
दिल्ली वासियों की भावना भी यही थी कि गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त हो चुकी है, आप दिल्ली में ही विराजें। परंतु सहयोगी दोनों संत मुनि अमन कुमारजी, नमिकुमारजी का आग्रह रहा कि गुरुदेव के दर्शन करने ही हैं तो मुंबई में ही करें, जिससे गुरुदेव के दीक्षा कल्याण वर्ष और शासन श्री साध्वी सोमलताजी से भी मिलना हो जाये। संतों की आंतरिक भावना ही मुझे समय पर श्री चरणों में पहुंचा पायी। रास्ते में विघ्न - बाधायें भी आयी परंतु रास्ते की सेवा में रत मनोज सुराणा का पूरा परिवार हमें सकुशल वसंत पंचमी को श्रीचरणों में पहुंचा सका।
एक दिन पूर्व बहुश्रुत परिषद के सदस्य मुनि दिनेशकुमार जी आिद संत आये और उन्होंने मधुर गीत का संगान कर फरमाया कि 'शासनश्री' साध्वी सोमलताजी काफी अस्वस्थ हैं, उन्हें दर्शन देने जरुरी हैं। मैं संतों के विचार सुनकर भाव विह्वल हो गया। दूसरे दिन गुरुदेव के दर्शन किये, हृदय में खुशी का पार नहीं रहा। गुरुदेव स्वयं अगवानी करने पधारे।
गुरु शिष्य का विनय, वात्सल्य अपने आप में धर्मसंघ की गरिमा महिमा बढ़ाने वाला होता है। मैंने श्रीचरणों में संत, पुस्तक पन्ने भेंट कर गीत का संगान किया। पूज्य प्रवर प्रसन्न थे, हाथ से संकेत कर मुझे नजदीक बुलाकर फरमाने लगे कि आप एक बार सोमलता जी को दर्शन दिला दें। मैंने निवेदन किया कब जाएं? पूज्य प्रवर ने फरमाया आज ही पधार जायें।
मैंने निवेदन किया कि संदेश की कृपा करावें। पूज्य प्रवर प्रवचन पंडाल पधारने वाले थे, समय हो चुका था, पूज्य प्रवर ने कृपा बरसाते हुए फरमाया कि आप एक बार पंडाल पधारें फिर जैसा उपयुक्त समझें, वहीं से पधार जायें। मैं अयाचित गुरुकृपा पाकर निहाल हो गया। उपर पहुंचकर संतो से खमत-खामणा की। मुनि जंबूकुमारजी, मुनि मनन कुमारजी ने कहा, आप अतिरिक्त सामान यही छोड़ दे हम संभाल लेंगे। मैंने अतिरिक्त सामान वहां रखकर ज्योंही प्रवचन पंडाल में प्रवेश किया, तब तक पूज्य प्रवर, साध्वी प्रमुखाश्रीजी आदि सभी पहुंच चुके थे। कार्यक्रम प्रारंभ होते ही दिनेशमुनि ने पूज्य प्रवर के प्रवचन के पूर्व ही मुझे बोलने का अवसर दिया। मैंनें संक्षिप्त में अपनी भावना रखकर विहार की अनुमति मांगी। पूज्य प्रवर ने प्रवचन पंडाल में ही अपने प्रवचन को विराम देकर संदेश लिखवाया, साध्वीप्रमुखाश्री जी को भी गुरुदेव ने पत्र के लिए संकेत किया, उन्होंने भी संदेश की कृपा करवाई, पूज्य प्रवर ने मंगलपाठ सुनाया और पट्ट से नीचे उतरकर पुनः वंदना की और पहुंचाने के लिए पूज्य प्रवर तत्पर बने। उस समय मैंने नम्र निवेदन कर गुरुदेव को पट्ट पर बिठाया और सारे संघ का आशीर्वाद लेकर द्रुत गति से आगे बढ़ता गया और दादर तेरापंथ भवन में पहुंचकर ही विश्राम लिया। मेरे आने की सूचना सुनकर साध्वी श्री ने मेरे स्वागत की तैयारी की। साध्वीश्री ने अपनी साध्वियों और पारिवारिक सदस्यों के साथ गीत गाया। वह गीत चंद समय में देश के कोने-कोने में पहुंच गया। भक्ति रस से भीगे गीत को सुनकर श्रोता अवाक् रह गये। शासनश्री जी अपनी वेदना को भूलकर लंबे समय तक व्हीलचेयर पर बैठकर अपनी कृतज्ञता गुरुदेव के प्रति, सारे संघ के प्रति और अपने सहोदर के प्रति प्रकट करती रही। दूसरे दिन प्रातः तीनों ही संत साध्वीश्री के सान्निध्य में पहुंचे, साध्वी श्री ने तीनों ही संतों को अपने हाथ से परोसा, उनकी खुशी का कोई पार नहीं था। दूसरे दिन ११:०० बजे तक साध्वीश्री व्हीलचेयर पर बैठी-बैठी सेवा कर रही थी मुझे लगा कि अभी सब कुछ ठीक सा प्रतीत हो रहा है। मैं साध्वी श्री से अनुमति लेकर मर्यादा महोत्सव के लिए पुनः श्री चरणों में वाशी पहुंच गया।
मर्यादा महोत्सव के पश्चात गुरुदेव ने मुनि मुकेशकुमारजी को वंदना करवायी। प्रथम बार न्यारां में चार संतों से मंगलपाठ सुनकर दादर के लिए प्रस्थान किया। पूज्य प्रवर ने फरमाया ज्यादा से ज्यादा समय सोमलता जी के सान्निध्य में लगायें। उन्हें चित्त समाधि पहुंचायें- सुनायें। मैं पूज्य प्रवर के अयाचित कृपा भाव को देखकर मेरे भाग्य की सराहना करने लगा मैंने ऋषभ मुनि से विहार का मुहूर्त मांगा, उनके बताये गये समय पर विहार कर दादर तेरापंथ भवन के पास वाली बिल्डिंग में ही उपाश्रय है हम वहां रुके, स्थान नजदीक और साताकारी मिला। पूज्य प्रवर की कृपा से दिन में २-३ बार जाता परंतु साध्वीश्री जी की शारीरिक शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी थी कि उठना-बैठना, बोलना, खाना बिल्कुल बंद सा हो गया। उन्होंने लिख कर दिया कि अब तिविहार त्याग करावें। लंबे समय से सब प्रकार की मुंह से दवाई, ग्लूकोज बंद कर दिया था, केवल घाव पर जलन के कारण मरहम पट्टी करते। घाव की तीव्र वेदना असह्य देखकर मैंने कहां इन्जेक्शन लग सकता है? जिससे पीप सूख जाये जलन से राहत मिल सके। अंत में तीन दिन तक आपने चौविहार तप किया। संथारे में इंजेक्शन नहीं लगा सकते इसलिए संथारा नहीं करवाया। सभी साध्वियां-साध्वी शकुंतलाजी, संचितयशाजी, जागृतप्रभाजी, रक्षितयशाजी बड़ी ही जागरुकता, आत्मीयता से अपने मनोबल को बनाकर जप, स्वाध्याय के साथ त्याग प्रत्याख्यान करवा रही थी। संसार पक्षीय भाई जसकरण, विजय, भतीजा महेन्द्र भाभी लक्ष्मी, तारा भतीजी कांता भतीजे की बहू सुधा लंबे समय से सेवा कर रहे थे। शाम को गुलाब बाग से राजेन्द्र चोपड़ा जोड़े से तथा पोतियां डॉ. खुशबू, मुस्कान भी आ गये, सभी ने दर्शन किये। परंतु बात करने की स्थिति नहीं थी, रात्रि में अकस्मात महेन्द्र आया और कहने लगा आंखे खुल गयी और श्वास का वेग मंद हो रहा है, क्या संथारा पचखा दें? मैंने कहा अब देर मत करो। साध्वियों ने स्थिति को देखा और शासनश्री की भी यही मानसिकता प्रांरभ से थी कि मुझे अंत में संथारा करना है। उनकी आंतरिक भावना को देखकर रात्रि में २:५१ पर चारों ही साध्वियों ने चिंतन कर समाज व पारिवारिक जनों की उपस्थिति में साध्वीश्री शकुंतलाजी ने आजीवन तिविहार संथारे का प्रत्याख्यान करवाया। संथारे की बात चंद समय में फैल गयी। श्रावक-श्राविकाओं का दर्शनार्थ आने का तांता लग गया। पूज्य प्रवर को भी निवेदन करवा दिया गया। मैं सूर्योदय के समय संतों के साथ पहुंचा, साध्वीश्री प्रतिक्षारत थी, जाते ही उन्होंने पूर्ण सजग अवस्था में चौविहार संथारा पचखा मात्र ३६ मिनट में नमस्कार महामंत्र सुनते-सुनते अंतिम श्वास लिया। चारों साध्वियां, चारों संत व श्रावक - श्राविकाओं के मध्य इस नश्वर शरीर को छोड़कर सदा-सदा के लिए विदा हो गई। पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री महाश्रमणजी की असीम कृपा से ही यह शुभसंयोग मिल सका। हम भाई-बहन सदा-सदा के लिए चिर ऋणी रहेंगे। महाप्रयाण के दिन दीक्षा प्रदाता महासती लाडांजी की पुण्यतिथि व महाशिवरात्रि के साथ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था।