आचार, संस्कार, व्यवहार और विचार में पुष्ट रहे अिहंसा : आचार्यश्री महाश्रमण
महान् यायावर आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रातः सांसवाड़ी से विहार कर तामिनी घाट पधारे। मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए महामनीषी ने फरमाया कि अहिंसा काफी व्यापक और प्रिय शब्द है। धर्म शास्त्रों में अहिंसा का बहुत महत्व बताया गया है। जीवन में हिंसा से विरत रहना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि जो ज्ञानी आदमी है, जिसने अनेक ग्रंथों का ज्ञान किया है, उसके ज्ञानी बनने का सार यह होना चाहिये कि वह किसी की हिंसा न करे। अहिंसा के लिए समता भाव भी अपेक्षित है। समता कारण और अहिंसा कार्य बन सकती है। गृहस्थ जीवन में रहने वाले भी अहिंसक चेतना के विकास का प्रयास करें। साधु के तो हर क्रिया में अहिंसा होती है। आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है, यह निश्चय नय की बात है। जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है, जो प्रमत्त है वह हिंसक होता है।
हिंसा-अहिंसा का मूल भीतर से संबंध है। वीतराग साधु चल रहा है, चलते-चलते कोई जीव मर गया तो हिंसा तो हो गयी पर साधु उस हिंसा के पाप का भागीदार नहीं बनता, क्योंकि साधु के भीतर में तो अहिंसा है। भीतर में अहिंसा है तो व्यक्ति बाहर में जानबूझ कर हिंसा कर ही नहीं पायेगा। द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा एक महत्वपूर्ण विषय बन जाता है। साधु के द्रव्य हिंसा हो भी जाये तो भी वह भाव हिंसा नहीं होती है। एक शिकारी शिकार के लिए बाण छोड़ता है पर शिकार नहीं हो पाता। इस स्थिति में भले वह द्रव्य हिंसा न हो पर भाव हिंसा अवश्य है। गृहस्थ भी ज्यादा से ज्यादा अहिंसा पूर्ण व्यवहार करने का प्रयत्न करे यह कल्याणकारी बात है।
गृहस्थ मांसाहार न करे। जितना संभव हो सके जमीकंद के भक्षण से भी बचे। किसी प्राणी की संकल्पपूर्वक हिंसा न करे, कटु वचन बोलने से बचें, यह भी अहिंसा की चेतना है। सभी जीवों के प्रति दया का, मैत्री का भाव रहे। गृहस्थों के आवश्यक हिंसा तो होती है, पर संकल्पजा हिंसा से गृहस्थ बचने का प्रयास करें। गृहस्थों का जीवन अहिंसक जीवन शैली वाला बने। जिस व्यवसाय में हिंसा ज्यादा हो उस व्यापार से बचने का प्रयास करें। अहिंसा परम धर्म है। हमारे आचार, संस्कार, व्यवहार और विचार में अहिंसा पुष्ट बनी रहे।