सत्संगत है मोक्ष तक पहुंचाने में निमित्त : आचार्यश्री महाश्रमण
संयम के सुमेरू आचार्यश्री महाश्रमणजी निजामपुर से विहार कर सांसवाड़ी पधारे। पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि आदमी संपर्क करता है, दूसरों के साथ रहता है, संगति करता है। संगति दो प्रकार की हो सकती है- सुसंगति और कुसंगति। सुसंगति को हम सत्संगत भी कह सकते हैं। सत्संगत अर्थात् साधुओं की, सज्जन व्यक्तियों की संगति। कुसंगति अर्थात् ऐसे व्यक्तियों के संपर्क में रहना जिनसे खराब संस्कार मिलते हों। संगति व्यक्तियों के साथ होती है, तो संगति साहित्य के साथ भी होती है। संगति का हमारे मन पर प्रभाव पड़ सकता है।
देखने या सुनने से उसका असर भीतर तक हो सकता है। श्रद्धेय की फोटो या मूर्ति सामने आ जाये तो उनके प्रति श्रद्धा के भाव आ सकते हैं। बुरा देखो मत, बुरा सुनो मत, बुरा बोलो मत, बुरा सोचो मत और बुरा करो मत। संगति हम पर प्रभाव छोड़ने वाली हो सकती है, इसलिए हमेशा अच्छी संगत करें, अच्छी बात करें। साधुओं की संगति तो बहुत अच्छी होती है। कहा गया है-
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।
साधु तो जंगम तीर्थ है, उनके तो दर्शन ही अपने आप में पुण्य है। जो साधु त्यागी हैं, अहिंसक हैं, उनके दर्शन मात्र से भीतर के पाप झड़ सकते है। साधु के दर्शन मिल जाए तो आदमी की दिशा और दशा बदल सकती है। साधुओं की उपासना करने से सुनने को कोई बात मिल सकती है। सुनने से ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान आदि गुण आ सकते हैं। सत्संगत मोक्ष तक पहुंचाने की निमित्त बन सकती है। अतः अच्छी संगति, त्यागी-संयमी साधु की संगति करने का प्रयास करें।