प्रतिस्रोत है संसार से उत्तरण का साधन : आचार्य श्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी आज माणगांव पधारे। महातपस्वी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि दो शब्द है- अनुस्रोत और प्रतिस्रोत। स्रोत या प्रवाह के साथ-साथ बहना आसान होता है और प्रवाह के अभीष्ट आगे बढ़ना मुश्किल हो सकता है। भौतिकतावाद अनुस्रोत है, अध्यात्मिवाद प्रतिस्रोत है। भोग चेतना अनुस्रोत है तो योग चेतना प्रतिस्रोत है। आसक्ति अनुस्रोत है, विषय विरक्ति प्रतिस्रोत है। अनुस्रोत संसार है, प्रतिस्रोत संसार से उत्तरण का साधन है। जिसे कुछ बनना है, उसे अपने आप को प्रतिस्रोत में नियोजित कर देना चाहिये।
पदार्थों के प्रति आसक्ति, भोग चेतना आदि इन्द्रिय विषयों के प्रति जो आकर्षण है वह सारा अनुस्रोत है और इन्द्रिय विजय की साधना प्रतिस्रोत की चीज है। मनोज्ञ शब्द से राग और अमनोज्ञ शब्द से द्वेष भाव हो सकता है। राग-द्वेष का संसार अनुस्रोत का संसार है, हम समता में रहने का प्रयास करें। शब्द की ही तरह रूप, गंध, रस, स्पर्श आदि के प्रति भी राग-द्वेष न हो। न स्वाद में आसक्त होना चाहिए, न विवाद में अनुरक्त होना चाहिए। थोड़ी सी आसक्ति कठिनाई बन सकती है। भोजन के प्रति भी अनासक्ति का भाव रहे।
उम्र के अनुसार जीवन शैली में आवश्यकता अनुसार बदलाव करते रहे। धार्मिक साधना में भी समय लगायें, परवश न बनें, आदमी स्वावलंबी रहे। गृहस्थ जीवन में व्यवहार भी निभाना पड़ता है। व्यवहार से निश्चय की ओर, आत्मा की ओर प्रयाण हो। स्पर्श के प्रति भी आसक्ति न हो, समता का भाव रहे। साधु को तो समतावान होना ही चाहिये। गृहस्थ भी समता भाव में, शांति में रहने का प्रयास करें। समता धर्म है, समता में सुख है। प्रतिस्रोत की दिशा, संसार मुक्ति की दिशा, अध्यात्म की साधना में आगे बढ़ने का प्रयास करते रहे।
पूज्यप्रवर के स्वागत में अस्मिता गांधी, रमेश बंब, अशोक बंब, लादुलाल गांधी, संध्या दलाल, रीना पिछोलिया, बाबुलाल बाफना ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।