संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

११. आत्मैव परमात्मास्ति, रागद्वेषविवर्जितः ।
शरीरमुक्तिमापन्नः, परमात्मा भवेदशो ॥
आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा राग-द्वेष और शरीर से मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है ।
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि आत्मा ही परमात्मा है। विश्व जनमत का बहुत बड़ा भाग आत्मा को परमात्मा नहीं मानता। वह कहता है कि परमात्मा एक है। अन्य आत्माएं उसी परमात्मा की अंश हैं। वे शुद्ध होने पर परमात्मा में ही विलीन हो जाती हैं। स्वतंत्र रूप से उनका कोई अस्तित्व नहीं है।
जैन-दर्शन इससे सहमत नहीं है। वह प्रत्येक आत्मा को पूर्ण स्वतंत्र मानता है।
आत्मा एक अखंड द्रव्य है। उसके अंश कभी पृथक् नहीं हो सकते। अंशों को यदि पृथक् रूप से मानें तो जीवात्मा- आत्मा के जो सुख-दुःख के भोग होते हैं वे सब परमात्मा के होते हैं, इससे परमात्मा की शुद्धता नहीं रह सकती ।
क्लेश, कर्म फल और चेष्टाओं से जो अपरामृष्ट पुरुष विशेष है वह परमात्मा है। परमात्मा की इस परिभाषा से अन्य आत्माओं का उसमें समावेश होना संभव नहीं हो सकता क्योंकि परमात्मा वीतराग है और अन्य आत्माएं सराग।
आत्मा की स्वतंत्र सत्ता मान लेने पर परमात्मा की अनेकता में भी कोई बाधा नहीं आती। आत्मा की पृथक् सत्ता और अनंतता गीता से भी स्पष्ट है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- 'ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था, तू नहीं था, ये राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा जब कि हम सब इसके बाद नहीं रहेंगे।
आत्मा को एक मान लेने पर विविध व्यक्तियों में विविधता का हेतु क्या होगा, कर्म फल की विभेदता क्यों है और मरने और जीने वाली आत्माएं क्या एक या अनेक हैं- कितने ही प्रश्न हमारे सामने हैं। आत्मा को अनेक मान लेने पर ये विरोध नहीं रहते।
आत्मा और परमात्मा एक है- यह एक ही शर्त पर माना जा सकता है, वह है स्वरूप।' एक आत्मा का जैसा सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है, वही सबका है। जब आत्मा इस स्वरूप को प्राप्त कर लेती है तब वह परम आत्मा बन जाती है। स्वरूपतः सब आत्माएं एक हैं, लेकिन सत्ता की दृष्टि से एक नहीं हैं। एक आत्मा का स्वरूप आज प्रकट हुआ है और एक का हजार वर्ष बाद। स्वरूप-प्राप्ति की दृष्टि से दोनों एक कैसे हो सकती हैं?
कई दार्शनिक एक ही परमात्मा को मानते हैं। उनका कहना है, अन्य कोई परमात्मा नहीं बन सकता। 'नर से नारायण' और आत्मा ही परमात्मा है' इन लोकोक्तियों का क्या अभिप्राय है, यह भी हमें समझना होगा। जैन दर्शन की मान्यता के आधार पर प्रत्येक आत्मा में परमात्मत्व का बीज विद्यमान है। जब इसे अनुकूल योग मिलता है वह परमात्मा बन जाती है।
परमात्मा वही आत्मा होती है, जो राग-द्वेष और शरीर से मुक्त होती है। आत्मा और परमात्मा में केवल आवरण और अनावरण का ही अंतर है। आवृत आत्मा आत्मा है और अनावृत आत्मा परमात्मा। उनमें स्वरूप भेद नहीं, केवल अवस्था-भेद है।
१२. स्थूलदेहस्य मुक्त्याऽसौ, भवान्तरं प्रधावति ।
अन्तरालगतिं कुर्वन्, ऋजुं वक्रां यथोचिताम् ॥
आत्मा मृत्यु के क्षण में स्थूल शरीर से मुक्त होकर भवांतर-पुनर्जन्म के लिए प्रस्थान करती है। उस समय उत्पत्ति स्थान के अनुसार उसकी ऋजु अथवा वक्र अंतराल गति होती है।
१३. यावत् सूक्ष्मं शरीरं स्यात्, तावन्मुक्तिर्न जायते।
पूर्णसंयमयोगेन तस्य मुक्तिः प्रजायते ॥
जब तक सूक्ष्म शरीर तैजस और सूक्ष्मतर शरीर कार्मण विद्यमान रहता है, तब तक आत्मा मुक्त नहीं होती। आत्मा की मुक्ति पूर्ण संयम–सर्व संवर की अवस्था में होती है तब दोनों शरीर छूट जाते हैं।